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डॉ. जस सिमरन कहल (Dr. Jas Simran Kehal)

ऐसा कहा जाता है कि यदि हम अपनी गलतियों से सीखें और शोषणकर्ताओं को अपना धैर्य और आशा न छीनने दें तो ही हम प्रगति की राह पर चल सकते है।

यह बाबा साहब डॉक्टर आंबेडकर की निर्भीकता थी कि उन्होंने पूना पैक्ट त्रासदी के बाद भी वास्तविक राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए भरसक प्रयास किए।

ऐतिहासिक पूना पैक्ट की 90वीं वर्षगांठ पर, आइए हम विश्लेषण करें कि डॉ आंबेडकर ने अपने पूरे जीवन में खुले तौर पर पूना पैक्ट की निंदा क्यों की और कांग्रेस द्वारा किए गए सयुंक्त निर्वाचन प्रणाली के बदले में उन्होंने क्या विकल्प सुझाए।

‘द चमचा युग – द ऐज ऑफ द स्टूज’ पुस्तक जो कि साहेब कांशी राम जी के द्वारा लिखी शायद एकमात्र पुस्तक है, उनके द्वारा पुना समझौते की वर्षगांठ (24 सितम्बर) के दिन ही सन 1972 में प्रकाशित हुई। हम उनके विचारों का विवेचन करने का भी प्रयास करेंगे।

यरवडा जेल में गांधी की अनैतिक भूख हड़ताल को ऐतिहासिक गलती बताकर उसकी आलोचना करते हुए, जिसे दलित वर्गो पर मजबूरन थोपा गया था, बाबासाहब ने अगले ही दिन ‘अछूत दुखी थे’ बयान के साथ कड़ी निन्दा की। उनके पास दुखी होने का हर कारण था। वास्तव में, वह उन सभी में सबसे अधिक दुखी थे।

बाबासाहव को जल्द ही यह एहसास हो गया कि पुना समझौते के तहत शुरू किए गए दो चरणों के चुनाव सैद्धांतिक रूप से दलित वर्गो को छद्म प्रतिनिधित्व की और लेके जाएँगे। पूना समझौते के कुछ महीने के भीतर ही, उन्होंने गांधी को ‘एकल चुनाव’ के विकल्प का प्रस्ताव दिया, जहाँ जीतने वाले दलित वर्ग के उम्मीदवार को अपने ही समुदाय से 25 प्रतिशत वोट मिलने चाहिएं, ऐसी बात थी। गांधी ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया और 1937 और 1946 के चुनावों में, इस विकल्प को खारिज करने के परिणामस्वरूप, बाबा साहेब के सैद्धांतिक भय को सत्य पाया गया। इस के बाद, संविधान सभा को प्रस्तुत किए एक बयान में, उन्होंने बार-बार अपनी स्थिति दोहराई कि केवल अलग/स्वतंत्र मतदाता ही अछूतों का वास्तविक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कर सकते है।

पूना समझौते के बाद से 90 वर्षों के चुनावी विकास में दलितों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व नष्ट हो गया है। यह सब गांधी द्वारा कम्युनल अवार्ड की विश्वासघाती हत्या के साथ शुरू हुआ और गांधी के बिल्कुल विपरीत विचारधारा होने के बावजूद, वर्तमान फासीवादी शासन द्वारा उसी उत्साह के साथ किया जा रहा है। क्या यह स्पष्ट रूप से दलितों को उनके वास्तविक राजनीतिक प्रतिनिधित्व से वंचित करने के एक सामान्य सिद्धांत पर काम करने वाली ताकतों का मकसद या मतलब नहीं है?

राजा शेखर वुंड्रू ने अपनी पुस्तक “द मेकिंग ऑफ इंडियाज़ इलेक्टोरल रिफॉर्म्स” में निष्कर्ष निकाला है कि दलितों पर इस्तेमाल की जाने वाली विभिन्न चुनावी प्रणालियाँ जैसे प्राथमिक और माध्यमिक चुनावों की पूना समझौते पर आधारित पैनल प्रणाली, दोहरे सदस्य निर्वाचन क्षेत्र और वर्तमान एकल सदस्य निर्वाचन क्षेत्र, अछूतों की समस्याओं का निराकरण और सामाजिक समानता हासिल करने हेतु विफल रहे हैं।

यदि दलितों के पास वास्तविक राजनीतिक प्रतिनिधित्व होता, तो एससी आरक्षित सीटों पर चुने गए लोकसभा में बैठे 84 सांसद हमारे समाज और पूरे देश के लिए चमत्कार करते।

हाल के पंजाब विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए, जहां हर तीसरा मतदाता दलित है, रेहनमोल रवींद्रन ने एक अध्ययन प्रकाशित किया है। अध्ययन से पता चलता है कि 34 आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में से कई में 45% से अधिक दलित वोट हैं- बंगा (49.71%); करतारपुर (48.82%); फिल्लौर (46.85%)। सामान्य सीटों में भी, 83 में से 64 सीटों में दलित मतदाताओं की संख्या अधिक है, जिनमें नकोदर (43.89%), नवांशहर (40.66%) और लंबी (40.50%) जैसे 40% से अधिक हैं। पंजाब में दलित मतदाताओं का प्रतिशत इतना अधिक है कि 117 में से 98 सीटों का फैसला उनके वोटों से होता है.

पिछली कांग्रेस सरकार के खिलाफ दलित मतदाताओं की नकारात्मक वोट की लहर पर सवार होकर, आआपा ने 2022 के चुनावों में 34 आरक्षित सीटों में से 29 सीटें हासिल कीं। आरक्षित सीटें जीतने वाले ये 29 आआपा विधायक अपनी पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं या नहीं, यह बहस का विषय है। हैरानी की बात यह है कि उनके पास अपने समाज को छोड़कर पार्टी से चिपके रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। जैसा कि बाबासाहेब ने कहा था, यह पार्टी का अनुशासन है, जिसने पंजाब में कानून अधिकारियों की नियुक्ति में आरक्षण की नीति लागू नहीं होने पर उन्हें आवाज़ उठाने से रोका। वह एक शब्द भी नहीं बोल सके जब उनके महाधिवक्ता ने अदालत को बताया कि सरकार को आरक्षण की कानूनी आवश्यकता नहीं दिखती क्योंकि कानून अधिकारियों की ‘दक्षता’ सबसे महत्वपूर्ण विचार था। यह संभावना नहीं है कि वित्त मंत्री, जो पंजाब के सबसे वरिष्ठ दलित विधायक हैं, पार्टी आलाकमान से हरी झंडी के बिना ‘अनुसूचित जाति उपयोजना’ जैसी दलित कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने में सक्षम होंगे। अगर पंजाब जैसे एससी-बहुल राज्य में ऐसा है, तो हम अन्य अल्पसंख्यक राज्यों से क्या उम्मीद करते हैं?


ऐसे में चुनावी व्यवस्था पर सीधा सवालिया निशान खड़ा हो गया है। राजनीतिक क्षेत्र में प्रतिनिधित्व और आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था ने एक ऐसे युग का निर्माण किया है जिसे साहेब कांशीराम ने 1982 में ‘चमचयुग’ कहा था। 40 साल पहले कांशीराम 90 साल पहले डॉ. अम्बेडकर ने बीमारी की पुष्टि की थी। और दलित अभी भी छद्म प्रतिनिधित्व के बोझ तले दबे हैं। उनके लिए इससे उबरने का समय आ गया है।

इस अचूक इलाज के लिए कुछ भी अलग से करने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि बाबासाहेब की वापसी की आवश्यकता है। पूना पैक्ट के पहले और बाद में जो डॉ अम्बेडकर ने किया शायद यही एक मात्र कार्य हैं कि पुरानी गलतियों को दुरुस्त करना होगा। संयुक्त निर्वाचक मंडलों के माध्यम से राजनीतिक आरक्षण की व्यवस्था को अंग-विच्छेद (amputate) करना है और अलग निर्वाचन पद्धति द्वारा दलितों का प्रतिनिधित्व से बदलाव ही समय की आवश्यकता है।

चमचा युग में कांशीराम द्वारा दी गई चिकित्सा आज भी प्रासंगिक है। यह अल्पकालिक सामाजिक कार्रवाई और दीर्घकालिक राजनीतिक संतुष्टि की दो-आयामी रणनीति के माध्यम से चातुकरिता के दौर के अंत की कल्पना करता है। जहां तक सामाजिक बदलाव की बात है, दलितों को अज्ञानी चम्मचों के साथ-साथ प्रबुद्ध/आंबेडकरवादी चम्मचों ने समान रूप से नीचा दिखाया है। पहले के लोगों ने बाबासाहेब के जीवन, संघर्ष, मिशन और संदेश पर ध्यान नहीं दिया और इसलिए जिन्होंने अपने अधिकारों को हड़प लिया, वे उनके रक्षक हैं। बाद वाले (अंबेडकरी-चमचे) समाज के लिए अधिक खतरनाक साबित हो रहे हैं। ये वास्तविक विचारधारा के बजाय अम्बेडकरवाद की व्याख्या अपने अनुसार करके समाज को चमचा युग -कठपुतली के दौर से लोटा युग- निराश्रित बहूजनों के दौर में धकेल देते हैं। विजय मानकर कहते हैं कि चमचा युग की शुरुआत24 सितंबर, 1932 को हुई थी , जबकि लोटा युग की शुरुआत 6 दिसंबर, 1956 पश्चात इन बुद्धिमान चम्मचों द्वारा की गई थी।

यदि पागलपन एक ही काम को बार-बार कर रहा है और विभिन्न परिणामों की उम्मीद कर रहा है, तो दलितों के लिए यह एक जंगली हंस है यदि वे वर्तमान चुनावी प्रणाली के माध्यम से राजनीतिक सत्ता का स्वाद लेने की उम्मीद करते हैं। संयुक्त निर्वाचक मंडल वाली सीटों के लिए राजनितिक आरक्षण हटा दिया जाना चाहिए और इसके बजाय दलितों के लिए एक अलग निर्वाचक मंडल की स्थापना की जानी चाहिए। चम्मचों का युग समाप्त करने और वास्तविक प्रतिनिधियों का चुनाव करने का यही एकमात्र दीर्घकालिक राजनीतिक समाधान है।

अब यह कौन करेगा? न तो पीएम मोदी ऐसा करने जा रहे हैं और न ही अंग्रेज फिर से कम्युनल-अवार्ड देने के लिए वापस आने वाले हैं। लोकसभा में 131 आरक्षित सीटें सांसदों का एक समूह है, जैसा कि राजा शेखर वुंड्रू ने उन्हें ‘गूंगा मवेशी’ कहा है और अपने-अपने राजनीतिक दलों की सेवा करते हैं। उनसे स्वतंत्र मतदाताओं के लिए कानून बनाने की उम्मीद नहीं की जाती है। विडंबना यह है कि वे दशकों बाद खुशी-खुशी अपने आरक्षण का विस्तार कर रहे हैं, जिसने शिक्षा और सरकारी क्षेत्रों में आरक्षण को धीरे-धीरे खत्म कर दिया है। जहां तक अंग्रेजों का सवाल है, पहले दो गोलमेज सम्मेलनों में डॉ. अम्बेडकर ने न केवल एक प्रभावशाली प्रस्तुति दी बल्कि उनके व्यक्तिगत अनुनय के कारण कम्युनल अवार्ड की घोषणा की गई।

क्या दलित अपने दुख को खत्म करने के लिए एक और आंबेडकर के जन्म की प्रतीक्षा कर रहे हैं? यदि वास्तव में बाबासाहेब अपने लेखन और भाषणों में जीवित हैं, तो दलितों को उनका अनुकरण करना चाहिए और स्वतंत्र निर्वाचक मंडल के लिए दबाव बनाना चाहिए जैसा कि उन्होंने जीवन भर किया।

इतिहास कभी इतिहास जैसा नहीं दिखता जब हम उसे आत्मसात करके जी रहे होते है। पूना पैक्ट एक मामूली समझौता था और यह सिर्फ दलितों के लिए इतिहास नहीं है क्योंकि वे अभी भी इसके परिणाम भुगत रहे हैं।

पूना पैक्ट के शताब्दी वर्ष बीत जाने के बावजूद दलित संघर्ष आंदोलन का दायित्व है कि उस मनहूस दिन में किए गए गलत कामों को दूर किया जाए। अम्बेडकरी बुद्धिजीवियों को आरक्षित सीटों के लिए विशिष्ट प्रतिशत वोटों के साथ बाबासाहेब के पृथक निर्वाचक मंडल या संयुक्त निर्वाचन प्रणाली विचार को लागू करके सही दलित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए एक रोड मैप बनाना होगा।


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डॉ. जस सिमरन सिंह कहल, एमएस (ORTHO), एक हड्डी रोग सर्जन/डॉक्टर हैं। उन्होंने पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला से पत्रकारिता और जनसंचार में मास्टर्स डिग्री भी हासिल की है। उनसे केहल ट्रॉमा सेंटर, नंगल डैम, पंजाब में संपर्क किया जा सकता है।

अंग्रेजी में यह आलेख Round Table India पर यहाँ प्रकाशित हुआ था.

अंग्रेजी से हिंदी भाषा में आलेख का अनुवाद डॉ राजेन्द्र जाटोलिया ने किया है. आप एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं व् उप जिला अस्पताल फागी , जयपुर में निश्चेतन विशेषज्ञ हैं. 

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