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मोहन मुक्त (Mohan Mukt)

कुछेक दिन पहले फेसबुक पर एक पोस्ट देखी जिसमें ‘मुस्लिम अस्मितावाद’ को समकालीन हिंदी साहित्य की मुख्य प्रवृत्ति बताने की कोशिश है. एक स्पष्ट फ़ासीवादी दौर में ये बात बहुत ही संवेदनहीन और भयानक है. लेकिन हिंदी का संकट एक आधारभूत संकट है। खड़ी बोली का पहला बताया गया कवि लोकरत्न पंत गुमानी एक ब्राह्मणवादी दलित विरोधी, स्त्रीविरोधी, अल्पसंख्यक विरोधी और साम्राज्यपरस्त कवि है। हिंदी की बीमारी जन्मजात है और इसलिये ये वर्चस्ववादी भाषा प्रतिरोध की सम्यक भाषा की निर्मिति में अपने आप में बाधक है।

नवंबर 2022 में साहित्य अकादमी के एक ऑनलाइन वेबिनार में मैंने इस पर कुछ बोला था। इसे मैंने अलग से एक लम्बे लेख के रूप में तैयार किया है। यहाँ इसका पूर्ववर्ती संक्षिप्त रूप इसलिए साझा कर रहा हूँ कि कथित मुस्लिम अस्मितावाद, कथित दलितवाद, आदि को हिंदी की मुख्य समस्या कहने वाले विद्वान इस भाषा का आधारभूत चरित्र और संकट देख पाएँ। 

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‘भाषा की हिंसा, हिंसा की भाषा और प्रतिरोध की सम्यक भाषा की निर्मिति की समस्याएँ’ विषय पर मेरी बात या व्याख्यान ‘पाठ और संदर्भ’ text और context पर मेरी अपनी समझ को प्रतिबिंबित करेगा। टेक्स्ट कुछ और नहीं बल्कि एक विशेष संदर्भ में प्रस्तुत किया गया एक लिखित बयान है। यह संभव है कि संदर्भ साफ़ साफ़ दिखाई न दे लेकिन वह हमेशा मौजूद रहता है। बिना सन्दर्भ के कोई भी टेक्स्ट शब्दों के निर्रथक समूह के अलावा कुछ नहीं है। साथ ही किसी दी गई घटना या परिप्रेक्ष्य में संदर्भ (context) कभी भी अद्वितीय (unique) या इकलौता नहीं होता है, बल्कि अलग अलग सामाजिक सांस्कृतिक स्थितियों / स्थान और लेखक की समझ के आधार पर वहाँ कई संदर्भ मौजूद होते हैं जो लेखक द्वारा चुने गए ख़ास संदर्भ पर आधारित ख़ास टेक्स्ट का निर्माण करते हैं।

इसलिए जब वर्गों पर आधारित समाज के किसी उपेक्षित वर्ग से कोई रचनाकार किसी टेक्स्ट को जाहिर करता है तो वहाँ उसकी पृष्ठभूमि और जीवन के अनुभवों के चलते नए प्रतीकों नए बिम्बों और नए परिप्रेक्ष्य के साथ नई भाषा के द्वारा ‘नए सत्य’ के सामने आने की सम्भावना है और इस प्रकार नए संदर्भ के सामने आने या बनने की संभावना है।

मुझे लगता है कि ‘सत्य’ के कई आयाम होते हैं जिनमें से दो बहुत आवश्यक हैं पहला अनुभव और दूसरा अभिव्यक्ति है। ये कहा जा सकता है कि कोई एक सच कम से कम दो ज़रूरी बातों से मिलकर बनता है experience (अनुभव) और expression (भाव) जो अनुभव न किया गया हो या न किया जा सकता हो वो सच नहीं।

जो जाहिर न किया गया हो या जाहिर न किया जा सके वो सच नहीं।

इसी तरह महसूस की गई बात जो जाहिर न की गई हो वो केवल अनुभव (experience) है सच नहीं, साथ ही हर बात जो जाहिर (express) तो की गई हो लेकिन महसूस न की गई हो वो केवल कोरा एक्सप्रेशन है, सच नहीं।

हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जो जाति वर्ग और जेंडर पर आधारित अन्यायपूर्ण वर्चस्व से संचालित होता है , इसलिए अलग अलग लोगों के अनुभव संरचना में उनके अलग-अलग स्थानों (locations) के अनुसार अलग-अलग होते हैं, इस तरह उनकी अपनी अनुभूत सच्चाई होती है। लेकिन ये सच्चाई मुकम्मल तब ही हो पाएगी जब express हो पाए।

अब अभिव्यक्ति का प्रश्न उठता है कि यदि वे अपनी अनुभव की गई सच्चाई को व्यक्त करने का विकल्प चुनते हैं तो उनकी भाषा कहन शैली और प्रतीकों को अनिवार्य रूप से अलग होना पड़ेगा। अगर उनका अनुभव किया गया सच अलग है तो ये होना ही है। मेरा मानना है कि किसी टेक्स्ट का मुहावरा (locution) उसके निर्माता के सामाजिक संरचना में उसकी जगह (location) से अत्यधिक प्रभावित होता है। लेकिन साथ ही मैं यह भी मानता हूँ कि हम सभी इंसानो के मूल रूप से एक समान होने के चलते हम अपनी संवेदनाओं को इस हद तक फैला सकते हैं कि हम किसी सामाजिक संरचना में किसी अन्य लोकेशन पर स्थित व्यक्ति की सच्चाई को पूरी तरह से अलग सामाजिक जगह से महसूस कर सकें। इसके लिए हमे अपने अनैसर्गिक वर्चस्व या प्रिविलेजेज के प्रति पहले सचेत होना होगा और सच के अनुभव और अभिव्यक्ति आधारित स्वरूप के साथ समानुभूति या अम्पैथी का मानवीय पहलू भी जोड़ना होगा और ऐम्पैथी की मानवीय स्थिति को हासिल करने की प्रक्रिया में अलग-अलग सामाजिक सांस्कृतिक स्थान के व्यक्तियों द्वारा निर्मित एक नए टेक्स्ट से उत्पन्न नया संदर्भ या नया सत्य हमेशा हमें अपने आप को विस्तारित करने में मदद करता है।

अब मैं इस बारे में बात करूंगा कि इंसानों के बीच वर्चस्व पर आधारित समाज के साहित्य में आम तौर पर प्रचलित और लोकप्रिय टेक्स्ट भाषा बिम्ब मुहावरे शैली और कहन चाहे वो कविता के फॉर्म में हो या फिर गद्य के फार्म में किस तरह अपने स्वरूप और प्रभाव के लिहाज़ से बेहद दोषपूर्ण होता है और क्यों इस प्रचलित टेक्स्ट को चुनौती देने की ज़रूरत है

मैं इसे ‘हिमालय दलित है’ की एक कविता के ज़रिये समझाने का प्रयास करता हूँ कविता का शीर्षक है ‘नाज़ी’

नाज़ी…
नाज़ी जल्लाद नहीं होते
जल्लाद नाज़ी नहीं होते
जल्लाद श्रमिक होते हैं
नाज़ी श्रमिक नहीं होते

नाज़ी कसाई नहीं होते 
कसाई नाज़ी नहीं होते
कसाई हमें भोजन देते हैं
नाज़ी भोजन नहीं देते

नाज़ी बहेलिये नहीं होते
बहेलिये नाज़ी नहीं होते
बहेलिये अछूत होते हैं
नाज़ी किसी को नहीं छूते

नाज़ी मर्द होते हैं
नाज़ी ब्राह्मण होते हैं
नाज़ी कमांडर होते हैं
नाज़ी श्वेत होते हैं

नाज़ी पुरोहित होते हैं
नाज़ी ज्योतिष होते हैं
नाज़ी व्यापारी होते हैं
नाज़ी अमीर होते हैं

राम नाज़ी है 
शम्बूक नहीं नाज़ी
जंगल से चले जो
बन्दूक नहीं नाज़ी

भस्मासुर नहीं नाज़ी
रक्तबीज नहीं नाज़ी
जो बिखरे तो पैदा हो
ऐसी चीज नहीं नाज़ी

अरे कविता के कब्ज़ेदारो 
ओ भाषा के जमींदारो

अपने बिम्ब दुबारा देखो 
जो इतिहास में हारा देखो

उसी को नाज़ी कहते हो तुम
किस दुनिया मे रहते हो तुम

ज़रा अपने उदाहरण देखो 
देख सको तो कारण देखो

बिम्ब तुम्हारे झूठे होंगे
भले प्रशंसा लूटे होंगे

‘कालजयी’ जो कृति तुम्हारी 
हमें अपराधी ठहराएगी
सुनो तुम्हारे बच्चों को वो
कहीं छुपानी पड़ जाएगी

संभलो कवि अब बदल भी जाओ
सच्चा देखो सच्चा गाओ

देखो वंशज पराजितों का 
अपनी कविता सुना रहा है
आपके जैसे सब कवियों के
भीतर नाज़ी बता रहा है

ऐसे तो असहाय नहीं हो
साथ तुम्हारे न्याय नहीं हो
तुम कविता के कब्ज़ेदार
तुम भाषा के जमींदार

बिम्ब को पलटो सुनो सलाह
अपने श्रेष्ठ को करो तबाह
करता हूँ तुमको आगाह
कविता के नाज़ी तानाशाह

भाषा के नाज़ी तानाशाह…

अगर मैं प्रचलित भाषा और टेक्स्ट के बारे में सामान्य लगने वाली ऐसी बातों की ओर आपका ध्यान आकर्षित करने में सफ़ल हो पाया जो अपनी मूल अंतर्वस्तु में आपत्तिजनक है तो मुझे लगता है कि इस कविता का टेक्स्ट आगे और खुलता चला जाएगा

अब मैं बात करता हूँ भाषा पर, हममें से अधिकाँश अक्सर भाषा को लेकर एक रोमेंटिक नजिरया रखते हैं दुनिया भर में भाषा को राष्ट्र राज्य का एक पैमाना माना जाता है, राष्ट्र की भाषाई उत्पत्ति को लेकर स्टालिन की परिभाषा आम तौरपर गैरमार्क्सवादियों द्वारा भी स्वीकार की जाती है लेकिन राज्य या राष्ट्र की तरह या फिर राष्ट्रराज्य की तरह भाषा भी हिंसक हो सकती है और होती है 

हिंदी के प्रसिद्ध कवि दिवंगत मंगलेश डबराल जी ने 26 जुलाई 2019 को फ़ेसबुक पर लिखा –

“हिंदी में कविता, कहानी, उपन्यास बहुत लिखे जा रहे हैं, लेकिन सच यह है कि इन सबकी मृत्यु हो चुकी है हालांकि ऐसी घोषणा नहीं हुई है और शायद होगी भी नहीं क्योंकि उन्हें खूब लिखा जा रहा है। लेकिन हिंदी में अब सिर्फ ‘जय श्रीराम’ और ‘बन्दे मातरम्’ और ‘मुसलमान का एक ही स्थान, पाकिस्तान या कब्रिस्तान’ जैसी चीज़ें जीवित हैं। इस भाषा में लिखने की मुझे बहुत ग्लानि है। काश, मैं इस भाषा में न जन्मा होता!” (मंगलेश डबराल की 26 जुलाई 2019 की पोस्ट )

इस पोस्ट पर पक्ष विपक्ष में तब काफ़ी हंगामा मचा उसी समय 28 जुलाई 2019 को ‘The Hindu’ में रुचिर जोशी ने एक लेख ‘Is Hindi going the German way’ में यही बात कुछ इस तरह कही गई है कि 1925 से 1945 के बीच जर्मन भाषा नस्लवाद और सामूहिक नरसंहारों को जायज़ ठहराने का माध्यम बन गई थी और अपने लेख में रुचिर कहते हैं कि

“there is a real danger that this might happen to Hindi or to certain sectors of it in a few years, when it is seen as having been the vehicle for the worst regressive religious majoritarianism, as the alibi language for lies and political lynching, as the language via which our republic was brought to ruin। Just as we have to resist the imposition of Hindi across India …” (The Hindu 28 जुलाई 2019 में प्रकाशित लेख ) 

वर्तमान में आम समाज और साहित्य में भी प्रचलित हिंदी के बारे में मंगलेश डबराल और रुचिर जोशी के विचारों की एक बेहद महत्वपूर्ण सीमा है जिसे आम तौर पर अनदेखा कर दिया जाता है, मेरा मानना है कि भाषा नहीं बल्कि उसका समाज उस समाज की बनावट बुनावट उसमे मौजूद वर्चस्व के स्थाई हो चुके ढाँचे और साथ ही यह बात ज्यादा मायने रखते हैं कि समाज का कौन सा वर्चस्वशाली तबका अपनी लोकेशन से भाषा को व्यक्त और संचारित संचालित कर रहा है। कुल मिलाकर हमेशा यही बात ज्यादा मायने रखती है कि भाषा पर किसका कब्जा है, एक स्थाई विभाजन और हाइरार्की पर आधारित समाज में भाषा, उसका टेक्स्ट और उसका कॉन्टेक्स्ट भी अक्सर इस विभाजन और हाइरार्की को बनाये रखने या और मज़बूत बनाने का  बस माध्यम होते है। और किसी ख़ास समय में राजनीतिक कारणों से भाषा और टेक्स्ट का एक ख़ास विभाजनकारी विचार के context को तीव्रता (intensity) देने के लिए इस्तेमाल होता रहा है 

मैं मानता हूँ मंगलेश डबराल और रुचिर जोशी दोनों ने हिंदी भाषा और उसके साहित्यिक टेक्स्ट को एक ख़ास समय के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में ही देखा है असल में हिंदी, उसका साहित्यिक टेक्स्ट और उसकी पृष्ठभूमि का कॉन्टेक्स्ट समकालीन दौर में हिंसक नहीं हुए हैं वो हमेशा से हिंसक रही है। अपनी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के कारण हिंदी के अपर कास्ट प्रगतिशील साहित्यकार हिंदी साहित्य के द्वारा किसी ख़ास कांटेक्स्ट को जाहिर करने वाले टेक्स्ट में समाहित हिंसा की भाषा और भाषा की हिंसा की उन गहरी जड़ों को नहीं देख पाते हैं जो जाति वर्ग और लिंग वर्चस्व आधारित हमारे समाज में बहुत भीतर तक समाई हुई हैं 

प्रगतिशील साहित्यकारों द्वारा हिंदी की वर्तमान दशा में जितना अफ़सोस आज जताया जा रहा है उसका कुछ हिस्सा भर अफ़सोस भी साहित्यकारों को तब नहीं हुआ जब इसी भाषा में भंगी, चमार, डोम, चूहड़ा, रंडी, छिनाल जैसे तमाम शब्द इसके समाज से गाली के रूप में जगह बना चुके थे और अक्सर टेक्स्ट में वर्चस्व के कॉन्टेक्स्ट को और गहरे स्थापित करने के लिए रह रह कर ज़ाहिर होते रहे और आज भी होते रहते हैं

बिहार में जब कर्पूरी ठाकुर ने बतौर मुख्यमंत्री पिछड़े वर्गों के विशेष प्रावधान करने की कोशिश की तो इसी भाषा में दीवारों पर नारे लिखे गए

 “पिछड़ी जाति कहां से आई 
कर्पूरी की माँ…..चु….”

हिंदी के साहित्यिक या आम समाज में प्रचलित टेक्स्ट और उसके इस तरह के आपत्तिजनक कॉन्टेक्स्ट वाली की भाषाई अभिव्यक्तियों से मंगलेश डबराल जैसे प्रगतिशील साहित्यकारों को क्यों महसूस नहीं हुआ होगा कि ये भाषा मर चुकी है, असल में हिदी साहित्य संसार में नियामक और नियंत्रक की मुख्य भूमिका वाला अपर कास्ट प्रगतिशील मानस समाज में मौजूद जातीय और लैंगिक गालियों अभिव्यक्तियों वर्चस्व को स्वाभाविक मान कर चलता है और टेक्स्ट की यही अनदेखी की गई स्वाभाविकता जब साम्प्रदायिक रूप ले लेती है तो वो इस तरह ज़ाहिर परिदृश्य उन्हें फासीवाद का स्पष्ट रूप लगने लगता है ।

ये उनकी दृष्टि की सीमा है जो एक गहन ऐतिहासिक समस्या को तात्कालिकता में समेट देना चाहती है।

हिंदी के साहित्यकारो को अक्सर ये बात समझ नहीं आती है कि उनकी ‘श्रेष्ठ’ भाषा में दलितों आदिवासियों स्त्रियों पिछड़ों अल्पसंख्यकों और यौन अल्पसंख्यकों सहित समाज के बहुसंख्यक हिस्से के लिए गालियों के अलावा शब्द तक नहीं हैं और ये बात उन्हें समस्या नहीं लगती, उन्हें बिलकुल अहसास ही नहीं कि उनकी भाषा उसका प्रचलित टेक्स्ट और कॉन्टेक्स्ट भी कितने गैर समावेशी हैं। हिंदी का ‘श्रेष्ठ’ बताया गया प्रचलित साहित्यिक टेक्स्ट का मूल कॉन्टेक्स्ट हिंदी पट्टी के अपर-कास्ट मर्दों की भाषा और उनकी मनोभूमि का कॉन्टेक्स्ट है। इसीलिए ‘नाज़ी’ कविता कहती है –

बिम्ब को पलटो सुनो सलाह
अपने ‘श्रेष्ठ’ को करो तबाह’

भाषा को लोकतांत्रिक और समावेशी बनाने के लिए हिंदी साहित्य के प्रचलित टेक्स्ट के ‘श्रेष्ठ’ को तबाह करना ज़रूरी है। और जो नया टेक्स्ट या नई भाषा का मुहावरा इस श्रेष्ठ को तबाह कर पाएगा वो नए कॉन्टेक्स्ट भी पैदा करेगा ऐसे सन्दर्भ जो आज तक अनदेखे थे और इस तरह कोई टेक्स्ट, अपने कॉन्टेक्स्ट की रचना करता है। 

अब हम हिदी साहित्य के कुछ बेहद प्रसिद्ध साहित्यिक टेक्स्ट के सहारे समझने की कोशिश करते हैं कि किस तरह हिंदी समाज और इसकी भाषा हमेशा से फासीवादी रहे है और वंचित तबकों का आपराधीकरण इसका एक महत्वपूर्ण कॉन्टेक्स्ट बनाता है। कुछ ख़ास वंचित तबकों का नकारात्मक चित्रण इस भाषा का एकदम सामान्य चरित्र है। बानगी देखें –

“समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध”  –  रामधारी सिंह दिनकर

हिंदी साहित्य की इस बेहद प्रसिद्ध कविता में ये व्याध कौन है और ये व्याध होने के कारण स्वाभाविक ही अपराधी क्यों है? ये बहेलिया है जो एक श्रमिक अस्पृश्य जाति होती है, जो पक्षियों को पकड़कर अपना रोजगार करती है, जो कि बेहद मेहनत का काम है। लेकिन हिंदी कवि इसे स्वाभाविक ही पापी मानकर चलता है। लगभग सभी हिंदी कवि ऐसा करते हैं और इनमें से कोई कवि राम को क्रूर नहीं मानता जो कि अपनी पत्नी के कहने पर एक मृग का शिकार करने को आवश्यक मानते हैं।

राम भगवान हैं और व्याध अपराधी, ऐसा क्यों?

साहित्य का ऐसा टेक्स्ट किस कॉन्टेक्स्ट से आता है और कौन से नए कॉन्टेक्स्ट बनाता है और क्यों ऐसा आपत्तिजनक टेक्स्ट इतना प्रसिद्ध हो जाता है कि आम समाज इसे बहुत ही स्वाभाविकता से ग्रहण करता है। महत्वपूर्ण साहित्यिक लोग अनगिनत बार इसके उदाहरण देते हैं और किसी को इससे कोई समस्या नहीं है जबकि इसमें बहुत ही दोषपूर्ण तरीक़े से दलित बहेलियों के पूरे समुदाय को ही अपराधी बता दिया गया है।

आपको कई कविताएँ कहानियाँ उपन्यास और साहित्यिक टेक्स्ट मिल जाएँगे जिनमें बहेलिये को एक क्रूर, स्वार्थी और अपराधी इंसान के लिये बिम्ब के बतौर इस्तेमाल किया गया है, कई इनमें से प्रगतिशील लोगों ने भी लिखी हैं। शायद ही किसी साहित्यिक टेक्स्ट में बहेलिये को उसकी वस्तुनिष्ठ मानवीय गरिमा के साथ चित्रित किया गया है। जबकि बहेलिये ने अछूत बहेलिया होना ख़ुद नहीं चुना है वो एक जाति की स्थाई वंशानुगत हाइरार्की वाले समाज में पैदा हुआ है जहाँ उसके जन्म से उसकी मौत तक उसका बहेलिया होना तय कर दिया गया है। एक कठिनतम पेशा और अकारण ही स्थाई निम्नतम सामाजिक स्थिति कोई क्यों चुनेगा। लेकिन हिंदी साहित्य का प्रसिद्ध कवि उसे बहेलिया होने के कारण ही अपराधी घोषित कर देता है तो ये टेक्स्ट के द्वारा जाहिर दोषपूर्ण बोध असल में भाषा में आता ही इसलिए है क्योकि ये एक सामाजिक सच के रूप में स्वीकृत है। इसीलिए हिंदी साहित्य द्वारा बहेलिये के साथ जबरन चिपका दिए गए अपराधी के टैग को तोड़कर उसे एक गरिमापूर्ण इंसान के रूप में देखने के मन्तव्य के साथ कविता ‘नाज़ी’ कहती है-

“नाज़ी बहेलिये नहीं होते
बहेलिये नाज़ी नहीं होते
बहेलिये अछूत होते हैं
नाज़ी किसी को नहीं छूते”

हिंदी साहित्य के टेक्स्ट में जिस तरह बहेलिये का चित्रण बेहद दोषपूर्ण है उसी तरह प्रत्येक श्रम करने वाले समुदाय के तिरस्कार का कॉन्टेक्स्ट वहाँ हमेशा मौजूद रहता है। चांडाल एक अस्पृश्य जाति है। जिसका चित्रण और साथ ही इस बिम्ब का प्रयोग भद्दे तौर पर हिंदी साहित्य में किया जाता है न जाने कितनी जगह हिंदी साहित्यकारों ने नकारात्मक मंशा वाले झुण्ड को दिखाने के लिए ‘चांडाल-चौकड़ी’ शब्द इस्तेमाल किये हैं। कंजर, जो एक घुमंतू अस्पृश्य और श्रमशील जाति है, को आम बोल-चाल के अलावा फ़िल्मों, और कहानियों आदि में एक गाली के बतौर इस्तेमाल किया जाता है, इसी तरह मछुवारों का भी जिक्र होता है।

क्या आपने किसी हिंदी के किसी भी टेक्स्ट में किसी ख्यातिलब्ध सवर्ण प्रगतिशील कवि या साहित्यकार की कोई ऐसी कविता या रचना पढ़ी है जिसमें किसी पुरोहित या ज्योतिषी आदि को ठीक वैसे ही नकारात्मक बिम्ब के रूप में इस्तेमाल किया गया हो जैसे बहेलिया, कंजर या कसाई या चांडाल को किया जाता है? जबकि ज्योतिषी द्वारा की गई सामाजिक हिंसा के सामने अपना पेट पालने के लिए पक्षियों को पकड़ने वाले दलित बहेलिया के द्वारा की गई हिंसा कुछ भी नहीं।

बहेलिया, कंजर, चांडाल, नट, मदारी आदि सब दलित जातियों और समुदायों के नाम हैं। पुष्टि के लिए के।एस।सिंह का ‘people of India’ the scheduled castes वॉल्यूम देखा जा सकता है।

वर्चस्व की अपनी सांस्कृतिक सामाजिक पृष्ठभूमि के चलते हिंदी के कवि एवं साहित्यकार अपने समाज की संरचना से वर्चस्व की भाषा को ही इस्तेमाल करते हैं वो अपने आपको प्रगतिशील मूल्यों का वाहक दिखाने की कोशिश में श्रम की प्रतिष्ठा की बात करते हैं लेकिन साथ ही सचेत रूप से या अनजाने में श्रमिक जातियों के समाज मे ब्राह्मणीय तन्त्र द्वारा स्थापित आपराधिक चरित्रबोध को और गहरे स्थापित करते हैं। ज्यादा दिक्कत की बात ये है कि श्रम की प्रतिष्ठा और श्रमिकों का आपराधिक प्रस्तुतिकरण ये दोनों बातें जिस विरोधाभासी टेक्स्ट और कॉन्टेक्स्ट में व्यक्त की जाती हैं उन्हें पूरी स्वीकृति और मकबूलियत मिलती है।

अपने टेक्स्ट की भाषा और बिम्बों के चयन में ब्राह्मणीय तन्त्र के प्रतीकों को बचाते हुए ये लोग श्रमिक जातियों को स्वाभाविक ही अपराधी घोषित करते हैं और गज़ब ये है कि इन्हें लगता है कि ये प्रगतिशील हैं फिर अंत में ये शिकायत करते हैं कि भाषा मर रही है।

‘शूद्र’ एक जाति थी लेकिन स्वतंत्र और स्वायत्त समुदाय के अर्थ में, शूद्र का पहला उल्लेख ईसा से  400 साल पहले यास्क के निरुक्त में मिलता है (सन्दर्भ : सुवीरा जायसवाल वर्ण जाति व्यवस्था)

इसी तरह ‘कमीन’ एक समुदाय रहा है।

आप हिंदी की कोई भी गाली उठाएँ, वो या तो जाति आधारित है या लिंग आधारित। दरअसल ये वर्चस्व की संस्कृति की दरिद्रता है जो स्त्रियों और पराजित या शोषित समुदायों के नाम को गाली की तरह इस्तेमाल करती है। कोई सामान्य शब्द किस तरह अपनी सामाजिक लोकेशन (location) के कारण गाली बन जाता है या ऐसे इस्तेमाल होता है, उसके लिए ‘औरत’ शब्द पर गौर करें। औरत एक बिलकुल सामान्य शब्द है लेकिन हिंदी समाज और इसीलिए हिंदी साहित्य में ये सामान्य शब्द तब गाली बन जाता है जब किसी पुरुष को ‘औरत’ कह दिया जाए। ये शायद हिंदी-पट्टी के पुरुष के लिए सबसे बड़ी गाली होगी। इसका कॉन्टेक्स्ट मर्दवाद की वर्चस्वशाली सामाजिक संरचना से तैयार होता है।

इसीलिए ‘नाज़ी’ कविता कहती है-

‘नाज़ी मर्द होते हैं’  

अब कुछ और ख़ास शब्दों पर चर्चा जो आम बोल-चाल, साहित्य के टेक्स्ट, फ़िल्मो आदि में अपने वास्तविक अर्थ मे प्रयोग होने की बजाए कुछ इस तरह इस्तेमाल किये गए जिससे ना केवल उनके अर्थ बदल गए बल्कि उन शब्दों के चारों ओर एक ऐसा नकारात्मक वातावरण साहित्य के द्वारा बना दिया गया कि वो शब्द साधारण समय मे शंका और असाधारण समय में घृणा और हिंसा को उकसाने में सहायक हुए। असल में वो एक आपत्तिजनक कॉन्टेक्स्ट से पैदा हुए और उन्होंने एक खतरनाक और हिंसक कॉन्टेक्स्ट तैयार किया।

जैसे एक शब्द है ‘कसाई’। ‘कसाई कौन है? ये हमारे समाज को सस्ता और ताज़ा प्रोटीन मुहैया करने की कड़ी का अहम हिस्सा है, बस इतना ही। इतनी ही इसकी पेशागत सच्चाई है। ये बिलकुल आम इंसान है। जिसे आपकी और हमारी तरह दर्द होता है जिसके बच्चे स्कूल जाते हैं। जिसका एक परिवार होता है। सोचिये अगर आपके समाज में कसाई ना हों तो क्या होगा?

लेकिन हमारा साहित्य, जो वस्तुनिष्ठ होने और मानवीय गरिमा पर बात बहुत करता है वो कसाई के प्रति वस्तुनिष्ठ और गरिमापूर्ण व्यवहार कभी नहीं करता। कसाई का बिम्ब इस तरह रूढ़ बना दिया गया है कि ये कविता कहानी आदि सभी जगहों पर नकारात्मक अर्थो में प्रयोग होता है। मोबलिंचिंग का शिकार होने वाले लोगों मे धार्मिक पहचान के बाद पेशागत पहचान देखी जाए तो कसाई काफी मिल जाएँगे। ऐसा क्यों है? हम ऐसी भाषा क्यों बना रहे हैं जिसमें किसी खास जाति और पेशे के लोग Vulnerable हो जाएँ। इस तरह के अनगिनत उदाहरण दिए जा सकते हैं जिसमें प्रगतिशील साहित्यकारों ने भी कसाई को नकारात्मक रूप मे इस्तेमाल किया है।

उदाहरण के लिये मैंने कुछ समय पहले अरुंधति की किताब’ एक था डॉ एक था संत’ पढ़ी एक जगह विभाजन को लेकर रेडक्लिफ लाइन का जिक्र करते हुए लेखिका लिखती हैं-

“विभाजन की इस रेखा को इस तरह खींचा गया कि एक कसाई भी गोश्त को काटते हुए इससे अधिक संवेदनशील होगा” 

(सन्दर्भ एक था डॉक्टर एक था संत: अरुंधति राय, हिंदी अनुवाद अनिल यादव ‘जयहिंद’,रतन लाल) 

बड़ी बात है, साहित्यिक रूप से चमत्कार वाली बात। लेकिन कसाई का क्या दोष है? इस बात से कसाई का क्या चित्र दिमाग़ मे बनता है? पहली बात तो यह चित्र ही गलत है? मैं अपने पेशे (veterinarian) के कारण जानता हूँ कि एक कुशल कसाई को गोश्त बहुत सलीके और संवेदनशीलता से काटना पड़ता है नहीं तो उसकी वैल्यू कम हो जाएगी। दूसरी बात, हम संवेदनशीलता की दुहाई देने के क्रम में एक पूरे समुदाय के प्रति समाज के असंवेदनशील हो जाने को बढ़ावा दे रहे हैं। 

अरुंधति के विचार क्या हैं ये सब जानते हैं लेकिन उनकी भाषा उनसे क्या करवा रही है वो खुद नहीं जानतीं। ये सभी प्रगतिशीलों की कहानी है। यहाँ एक बात और गौरतलब है कि मूल अंग्रेजी किताब में उन्होंने सम्भवतः ‘बुचर’ शब्द इस्तेमाल किया हो जो पेशे या व्यक्ति को इंगित करता है। लेकिन हिंदी अनुवाद करते हुए जब ये शब्द ‘कसाई’ बनता है तो ये ख़ास सम्प्रदाय के ख़ास पेशे करने वाले श्रमिकों का आपराधिक चित्रण करता है। इस तरह समाज की संरचना का कॉन्टेक्स्ट एक ही शब्द की दो अलग भाषाई अभिव्यक्तियों में बदल जाता है। ये एक गंभीर समस्या है ।

एक और उदाहरण देखें।

हिंदी के प्रसिद्ध कवि वीरेन डंगवाल की साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कृति ‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ से ली गई है। यह कविता देखिएगा।।। 

“विद्वेष 
यह बूचड़खाने की नाली है
इसी से होकर आते हैं नदी के जल में
ख़ून
चरबी, रोयें और लोथड़े।

प्रेम की सुंदरता का निषेध करने वाले 
इसी तट पर आते हैं
हाथ -पैर धोने”

इस कविता को पढ़कर आपके मन में बूचड़खाने/ बूचड़ /कसाई का कैसा चित्र बनता है या पहले से बने हुए चित्र पर कैसा रंग चढ़ता है? मेरे विचार में ये वही रंग है जिसका निषेध करने की कोशिश कवि कर रहा है। हिंसा का विरोध करने की कोशिश में कवि अनजाने में कसाइयों के पूरे समुदाय के प्रति हिंसक व्यवहार को बढ़ावा दे रहा है। भाषा की हमेशा हत्या नहीं होती कई बार वो गफ़लत में भी मारी जाती है और ये गफ़लत अपनी सांस्कृतिक जड़ों के कारण प्रगतिशीलों से अक्सर हो जाया करती है।

असल में किसान की दराती और कसाई के चाक़ू में कोई अंतर नहीं है। किसान और कसाई दोनों हमें भोजन देने वाले श्रमिक हैं दोनों की गरिमा समान है। यही मानवीय है। वैज्ञानिक है। दिक्कत अगर कहीं है तो हमारी नज़र में है। और ये नज़र बनती है एक दोषपूर्ण कॉन्टेक्स्ट पर आधारित साहित्यिक टेक्स्ट से।

इसीलिए नए मानवीय और साथ ही वैज्ञानिक कॉन्टेक्स्ट के निर्माण की कोशिश में नाज़ी कविता कहती है–

‘नाज़ी कसाई नहीं होते 
कसाई नाज़ी नहीं होते
कसाई हमें भोजन देते हैं
नाज़ी भोजन नहीं देते’

अब मैं बात करता हूँ भेदभाव और वर्चस्व के ख़िलाफ़ सम्यक मानवीय प्रतिरोध की भाषा का टेक्स्ट कैसा हो कि वो नई संवेदनशीलता और वस्तुनिष्ठता वाले सन्दर्भों की रचना कर सके।

अक्सर किसी समाज की वर्चस्व पर आधारित संरचना को अनदेखा कर उसकी भेदभावपूर्ण समूची भाषा को निर्दोष मान लिया जाता है जो कि एक दोषपूर्ण बात है। प्रतिरोध के लिहाज़ से भाषा का महत्व ज़रूर है लेकिन इसमें एक अंतर्निहित सीमा भी है। 

ज़रा सोचें अगर पृथ्वी पर एलियन कब्ज़ा करने आएँ तो उनके खिलाफ प्रतिरोध की भाषा क्या होगी?

पृथ्वी के इतिहास को देखते हुए ज़ाहिर है वो कोई साम्राज्यवादी भाषा होगी जिसकी तात्कालिक भूमिका और ‘भाषा’ (टेक्स्ट) बदल जाएगी। अगर किसी देश पर कब्ज़े का प्रयास हो तो उस देश की सबसे ताक़तवर और वर्चस्वशाली भाषा प्रतिरोध की भाषा हो जाएगी। राष्ट्रीयताओं पर देशों के कब्ज़े के खिलाफ़ उनकी भाषाई अस्मिता के संघर्ष को साफ़ देखा जा सकता है। लेकिन कुछ गहरे देखने की कोशिश करेंगे तो उनकी भाषाई अस्मिता उनके भीतर की सत्ता संरचनाओं को ओवरशैडो करती है। जैसे किसी धर्म, नस्ल, जाति, सम्प्रदाय पर आधारित संप्रभुताएँ समाधान ना होकर नई समस्याएँ हैं वैसे ही भाषा पर आधारित संप्रभुताएँ भी।

इस तरह से समूची भाषा पर आधारित प्रतिरोध का बेहद तात्कालिक महत्व है। भाषा का सांस्कृतिक ट्रेट शोषण की अन्य संस्थाओं तथा वर्ग, जाति, नस्ल, मर्दवाद को बहुत बारीकी से दरकिनार कर देता है।

सबसे बड़ा मिथ ये है कि

 “भाषा की अपनी कोई वर्ग संरचना नहीं होती”

अगर भाषा को व्याकरण और उच्चारण आधारित संप्रेषण का माध्यम मात्र मानना है तो उक्त बात को यांत्रिकरूप से सही कह सकते हैं लेकिन अगर भाषा का मतलब एक ख़ास सामाजिक-सांस्कृतिक लोकेशन से अपने वास्तविक बोध और अनुभूति आधारित मनोभावों को ज़ाहिर करने से है तो भाषा की निश्चित वर्ग संरचना होती है।

इतिहास में वर्चस्वशालियों के हाथों अपनी नैसर्गिक स्वायत्तता गँवाने जिन तबकों समुदायों या जातियों के पास अपने स्वतंत्र सांस्कृतिक संदर्भ नहीं बचे रह पाए हैं उनकी ‘भाषा’ और उनके शब्द-संसार से भाषा की वर्ग संरचना को पहचाना जा सकता है–

जैसे कि ‘नाज़ी’ कविता कहती है

‘अरे कविता के कब्ज़ेदारो 
ओ भाषा के जमींदारो

अपने बिम्ब दुबारा देखो
जो इतिहास में हारा देखो

उसी को नाज़ी कहते हो तुम
किस दुनिया मे रहते हो तुम

ज़रा अपने उदाहरण देखो
देख सको तो कारण देखो’

यहाँ कुमाऊँ में दलित हलिया जो कई बार बंधुआ मजदूर भी होता है, की ‘भाषा’ पर ग़ौर करें। वो अपरकास्ट भू-स्वामी ब्राह्मण या ठाकुर का अभिवादन ‘मेर सेव’ कह कर करता है जिसका मतलब होता है।

 “मैं आपको अपनी सेवा अर्पित करता हूँ” चूंकि वो अछूत है इसलिये ‘पैलागन’ नहीं कहता क्योंकि वो अपने बिठ ‘स्वामी’ के पांवों को छूकर उसे अपवित्र नहीं कर सकता।

ये भाषा कोई अपरकास्ट इस्तेमाल नहीं करता और जो भाषा अपरकास्ट इस्तेमाल करता है वो हलिया इस्तेमाल नहीं करता या नहीं कर सकता। ऐसे अनगिनत उदाहरण दिए जा सकते हैं जिससे भाषा की वर्ग संरचना ना होने के मिथ को आसानी से तोड़ा जा सकता है।

असल बात ये है कि अगर समाज में वर्ग हैं तो भाषा सहित प्रत्येक कल्चरल ‘ट्रेट’ की वर्ग संरचना होती है।

कहना यह है कि प्रतिरोध की भाषा के टेक्स्ट के ज़रिए नए कांटेक्स्ट स्थापित करने की कोशिश करने वाला प्रत्येक लेखक यह देख पाएगा कि असल प्रश्न मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का है और भाषा सहित कोई भी सांस्कृतिक ‘ट्रेट’ जिसे शोषक वर्ग और शासित वर्ग साझा करते हुए दिखाई देते हैं वो अपनी प्रासंगिकता के बावज़ूद एक सीमा के बाद ना केवल अवरोध बनते हैं बल्कि बड़ी समस्याएँ भी बन जाते हैं।

हमारे सामने मुख्य चुनौतियाँ हैं जाति, वर्ग और मर्दवाद/ पितृसत्ता भाषा या किसी भी सांस्कृतिक ‘ट्रेट’ पर आधारित प्रतिरोध इनमें से किसी को भी गहराई से ऐड्रेस नहीं कर पाता। इसलिए प्रचलित टेक्स्ट से जाहिर भाषा को रोमांटिक दृष्टि से देखना बंद करना होगा। जिनकी ‘कोई भाषा नहीं’ उनकी भाषा को समझने की कोशिश करनी होगी।

हमने ऊपर अच्छी तरह देखा कि प्रचलित और लोकप्रिय टेक्स्ट में हिंदी साहित्य की भाषा एक वर्चस्ववादी भाषा है। हिंदी कवियों और रचनाकारों की सांस्कृतिक लोकेशन का वर्चस्व बिम्बों के रास्ते श्रमिकों पर टूट पड़ता है। वो भी श्रम की प्रतिष्ठा के नाम पर अगर श्रम की प्रतिष्ठा वास्तव में स्थापित करनी है तो श्रमिकों को अपराधी घोषित करना बंद करें, और अगर श्रमिकों को अपराधी बताकर ‘कालजयी’ रचना लिखना चाहते हैं तो वो समय अब जा चुका है। और नहीं गया है तो उसे जाना होगा।

‘नाज़ी’ कविता कहती है-

‘कालजयी’ जो कृति तुम्हारी
हमें अपराधी ठहराएगी
सुनो तुम्हारे बच्चों को वो
कहीं छुपानी पड़ जाएगी’

श्रमिक जातियों, वंचित तबकों, धार्मिक अल्पसंख्यको, दलितों आदिवासियों, स्त्रियों और यौन अल्पसंख्यकों को स्वाभाविक ही निम्न और आपराधिक घोषित करने वाली किसी भी हिंसक भाषा को, भाषा की हिंसा को, हिंसा की भाषा को ज़रूर ही मर जाना चाहिए। मैं इसकी मौत की दुआ करता हूँ। आमीन!

लेकिन ये इतना आसान नहीं। केवल दुआ करने से स्थाई सामाजिक सांस्कृतिक वर्चस्वों से पैदा होने वाले सन्दर्भ उनके टेक्स्ट और इन टेक्स्ट्स से पैदा और मजबूत होने वाले कॉन्टेक्स्ट प्रभावित नहीं होते।

हमे अपने सच बयाँ करने होंगे लेकिन भाषाई रूप से बहुत ही सचेत होकर। हम एक वर्चस्व को प्रश्नगत करने की कोशिश में कहीं दूसरे वर्चस्व को मजबूत तो नहीं कर रहे? ये हमें देखना ही होगा। हमारा प्रतिरोध का टेक्स्ट किसी मानवीय कॉन्टेक्स्ट को तभी रच पाएगा जब वो अपने मुहावरे को वर्चस्व की भाषा से मुक्त कर पाए। हिंदी में या किसी भी भाषा के साहित्य में उत्पीड़ितों की धारा ऐसा तब ही कर सकती है जब वो ये देख पाएगी कि वो कहीं ख़ुद में स्त्री विरोधी, अल्पसंख्यक विरोधी या दलित विरोधी प्रचलित मुहावरों का इस्तेमाल तो नहीं कर रही है? जैसे हिंदी साहित्य की दलित धारा का वो हिस्सा जो धर्मवीर के लेखन और चिन्तन से प्रभावित है उसका टेक्स्ट काफ़ी हद तक स्त्री विरोधी कहा जा सकता है। इस तरह की प्रवृत्तियों से बचना उत्पीड़ितों के लिए ज़रूरी है।

हम अपने हिस्से के वास्तविक बोध को किसी प्रचलित दोषपूर्ण भाषा के टेक्स्ट में जाहिर नहीं कर सकते। मुझे लगता है हमारे पास प्रतिरोध की सम्यक और गतिशील भाषा का अभाव बना हुआ है जो प्रचलित साहित्य के ब्राह्मनीय मर्दवादी दूषण से ख़ुद को बचाते हुए ऐसा टेक्स्ट सामने लाए जिससे बनने वाले सन्दर्भ हमें अधिक मानवीय बना पाएँ और साथ ही एक ज़रूरी मुकम्मल प्रतिरोध की भाषा गढ़ पाएँ। ये एक चुनौती है।

यहाँ तक कि हमें ये भी तय करना होगा कि हमारे प्रतिरोध की गाली कैसी होनी चाहिए?

कुछ समय पहले एक प्रसिद्ध दलित नेता द्वारा पुरोहितों को ‘हरामी’ कहा गया। इस बात पर काफ़ी चर्चा और विवाद हुआ। सोशल मीडिया में नेता जी को बहुजनों की ओर से भरपूर समर्थन मिला।

मैं उक्त नेता की उस गाली या भाषा का समर्थन नहीं कर सकता। लेकिन मैं ये भी नहीं मानता कि भाषा, गाली रहित और शुद्ध नैतिक मापदंडों के अनुरूप होनी चाहिए।

निः सन्देह भाषा स्वाभाविक और निष्प्रयास होनी चाहिए और गाली भी।

गाली ज़रूरी है क्योंकि ये प्रतिरोध के रूप में घृणा को बाहर करने का ज़रिया है। जिन सत्ता संरचनाओं से आप घृणा करते हो उनके प्रति घृणा का प्रदर्शन ज़रूरी है और जब आप सत्ता संरचनाओं को गाली दे रहे होते हैं तो वो गहरी घृणा की सूचक होने के बावजूद भी अप्रिय नहीं लगती। जैसे ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ के साथ जुड़ा हुआ नारा ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ एक गाली है जो गहरी और जायज़ घृणा की सूचक है, और ये किसी व्यक्ति को नहीं बल्कि सत्ता संरचना को दी गई गाली है।

अगर गाली किसी व्यक्ति को भी दी जाए तो भी वो किसी सत्ता को कमज़ोर या प्रश्नगत करने के लिए दी गई गाली होनी चाहिए न कि उसी या किसी दूसरी या पहली से जुड़ी अन्य ख़तरनाक सत्ता संरचना को मज़बूत करने के लिए।

जैसे पुरोहितों को ‘हरामी’ कहने का मतलब ब्राह्मणवाद को कमज़ोर करना नहीं है बल्कि यह स्त्री की योनि पर सम्पत्तिधारक पुरुषों के कब्ज़े को ही ‘वैध’ स्थिति मानने वाली और इसके इतर स्थिति को ‘अवैध’ घोषित करने की स्थिति है। अगर वस्तुगत रूप से देखें तो सभी इंसान ‘हरामी’ हैं। अगर सब ‘हरामी’ हैं तो ‘हरामी’ गाली क्यों हुई।

ये पुरुषों की स्त्रियों पर अप्राकृतिक क़ब्ज़ेदारी है, जो ‘हरामी’ को गाली बनाती है। इस तरह ये गाली पुरोहित को दिए जाने के बावजूद भी स्वयं में ब्राह्मणीय मर्दवादी गाली है। ये आपकी पुरोहित संस्था के प्रति नहीं बल्कि स्त्रियों की स्वतंत्रता के प्रति घृणा की सूचक है।

चाहे आप दलित हों, बहुजन हों, या कुछ भी, इस गाली को बोलते हुए आप सांस्थानिक वर्चस्व रखने वाले ब्राह्मणीय पितृसत्ता के वाहक मर्द ही हैं। भले ही आपको ये महसूस न हो। इस तरह ब्राह्मण वर्चस्व को दी गई अनुपयुक्त गाली से ब्राह्मणवाद और मर्दवाद मजबूत होता है कमज़ोर नहीं। क्योंकि वो अब आपकी भाषा के ज़रिये आपके अपने समाज में और गहरा इंस्टिट्यूशनैलाइज़ हो रहा है। आप वर्चस्वधारकों की बीमारी से ख़ुद संक्रमित हो रहे हैं या हो चुके हैं। ऐसी स्थिति में आपकी गाली एक मामूली प्रतिक्रिया से अधिक असर नहीं रखेगी।

आजकल अक़्सर फिल्मों वेबसीरीज आदि में स्त्रियों को बोल्ड दिखाने के लिये उनके मुँह से ढेर सारी मर्दवादी गालियाँ दिलवाई जाती हैं या नगण्य जगहों पर सच में स्त्रियां ऐसी गालियाँ देती हुई सुनाई भी देती हैं। असल में ये उन मर्दों के कौतूहल और घृणास्पद मनोरंजन से अधिक कुछ नहीं जो अपने घरों और परिवेश में चुप कर दी गई स्त्रियों को देखने के आदी हैं। ये मर्दों के लिये ‘नए’ मनोविलास की तलाश का प्रतिफल है। एक सनसनी। इसके अलावा कुछ नहीं।

एक औरत भी जब किसी मर्द को ‘हरामी’ कहे या ‘बहन…द ‘ ‘मादर…द’ कहे तो भी ये उतना ही काउंटरप्रोडक्टिव है जितना दलित नेता द्वारा पुरोहित को ‘हरामी’ कहना। क्योंकि इन सभी स्थितियों में स्त्री योनि और अस्तित्व पर पुरुष की संस्थागत क़ब्ज़ेदारी को और मज़बूती मिलती है। तो प्रतिरोध कैसे हो??

गलतियों की कुछ और बानगियाँ देखें।

कुछ समय पहले फेसबुक पर ही, एक हिंदी भाषी प्रतिष्ठित पत्रकार की वाल पर मैंने देखा कि एक सुंवर के चित्र पर तिलक लगा था और सुंवर ने जनेऊ पहना हुआ था।

सम्भवतः ब्राह्मण वर्चस्व को घटिया और नीच दिखाने के लिए ऐसा किया गया था।

लेकिन सुंवर क्यों?? भारत इकलौता ही देश है जहाँ सुंवर को निम्नता या घृणा को प्रदर्शित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। वो इसलिए क्योंकि सुंवर को दलित पालते हैं और पोर्क भी सबसे अधिक दलित ही खाते हैं।

बहुजन बौद्धिको कृपया समझिए कि सुंवर घृणित है क्योंकि दलित घृणित है।

‘सुंवर का बच्चा’ ‘कुत्ते का बच्चा’ के बनिस्बत बड़ी गाली है। ऐसे ही ‘कुतिया’ ‘कुत्ते’ की तुलना में अधिक घृणित और भद्दी गाली है। सारी गालियाँ जाति और जेंडर के इर्द गिर्द ही हैं। प्रचलित सारी गालियाँ ब्राह्मणवादी मर्दवादी हैं।

तो जब आप सुंवर को जनेऊ पहनाते हैं और सोचते हैं कि ब्राह्मण वर्चस्व को गरिया रहे हैं असल में आप सुंवर की ‘नीचता’ और इसीलिए दलितो की ‘नीचता’ को स्वीकार कर रहे हैं। उसे मजबूत कर रहे हैं।

जैसे गाय अपने आप मे पवित्र नहीं वैसे ही सुंवर भी अपने आप में अपवित्र नहीं, दोनों की पवित्रता या अपवित्रता उन्हें पालने या प्रतीक रूप में स्थापित करने वालों की सामाजिक लोकेशन में है।

इसलिए ब्राह्मणीय वर्चस्व को नीचा दिखाने के लिए सुंवर का इस्तेमाल असल में दलितों को नीचा दिखा रहा होता है और ये काम ब्राह्मणवाद के विरोधी करते हैं। उन्हें इसका अंदाज़ा भी नहीं।

दिलीप जी और गीता यादव जी की बेस्टसेलर और बेहद पठनीय किताब है, ‘अनसोशल नेटवर्क’। मैं सभी दोस्तों से इस किताब को पढ़ने की ज़ोरदार सिफ़ारिश करता हूँ, लेकिन इस किताब में एक इश्यू है। कवर पर ‘अनसोशल’ को यानि बुरे को इंगित करने के लिये ‘सींग’ का इस्तेमाल हुआ है।

ब्राह्मण संस्कृति या श्वेत संस्कृति में ही ‘सींग’ नकारात्मक हैं अन्यथा तो सींग प्रतिरोध की असुर संस्कृति का प्राकृतिक प्रतीक है। रत्न जड़ित मुकुट शोषण का प्रतीक है और सींग नैसर्गिक सरलता का।

दिलीप मंडल जी को कुछ गहरी चीज़ों पर ग़ौर करना चाहिए।

ख़ैर मुझे बहुजन प्रतिरोध की जो एक गाली/ नारा कुछ अपील करती/करता है वो है-

“तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार”

ये व्यापक है, व्यक्ति केंद्रित नहीं। संरचना पर चोट करती है। परम्परागत वर्चस्व शाली स्थाई पेशों के खिलाफ है। व्यापक अर्थ में ये पुरोहितवाद/ ब्राह्मणवाद, पूंजीवाद और सैन्यवाद/ साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ है।

मैंने कहा कुछ अपील करती है। बहुत अपील करती है, यह नहीं कहा। वो इसलिए क्योंकि ‘जूते मारना’ गहरी घृणा का सूचक इसलिए भी है कि जूते बनाने का काम दलित करते हैं। इसका एक और अर्थ यह हो सकता है कि दलित के पास अपना हथियार जूता ही है जो एक उपयोगी वस्तु है। लेकिन वो परम्परागत पेशों और ब्राह्मणीय तंत्र में निम्नता से ख़ुद भी जुड़ा है इसलिए ये गाली मुझे कुछ अपील करती है बहुत अधिक नहीं।

लेकिन इस गाली/ नारे में एक क्रांतिकारी अंतर्वस्तु थी इसीलिए बहुत जल्द ही जोड़तोड़ और किसी भी तरह सत्ता पाने को लालायित बहुजन राजनीति ने इससे ख़ुद को अलग किया और इसे नक्सलियों की ईजाद बता दिया।

तो ऐसा लगता है कि घृणा प्रदर्शित करने के लिए दलितों बहुजनों या स्त्रियों के पास समुचित शब्दावली या प्रतीक नहीं है। वो जो भी शब्द या प्रतीक इस्तेमाल करें वो उनकी ख़ुद की सांस्थानिक निम्नता और ब्राह्मणीय पितृसत्ता को और मजबूत करते हैं।

प्रतिरोध की सम्यक भाषा और वर्चस्वरहित इंसानी प्रतीकों और बिम्बों को गढ़ना, उनका अविष्कार करना, हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है।

ऐसे में मुझे फिर बाबासाहेब याद आते हैं जिन्होंने घृणा को प्रदर्शित करने के लिए सबसे उचित वैज्ञानिक लेकिन ब्राह्मणीय पितृसत्ता के पैरोकारों को तिलमिला देने वाली भाषा इस्तेमाल की है-

“हिंदुओं को समझना चाहिए कि वे भारत के बीमार लोग हैं और ये भी कि उनकी बीमारी दूसरे भारतीयों के स्वास्थ्य और प्रसन्नता के लिए खतरा है” – डॉ भीम राव आंबेडकर 

इसमें घृणा है लेकिन साथ ही ये साफ़ है कि बीमारी एक असामान्य स्थिति है जिसे सही कर सकते हैं, पहले बीमार ख़ुद को बीमार माने तो इस असामान्यता का इलाज संभव है। जाति श्रेष्ठता ग्रन्थि एक मनोरोग ही है जिसमें इंसान का छुवा खाने पर कई लोगों को उल्टियाँ आती हैं। ऐसा सच मे होता है, फिर वो गाय का पेशाब पीते हैं और ठीक हो जाते हैं। ये बीमारी तो हुई। लेकिन ये बीमारी अकेली नहीं। इसके साथ एक भौतिक संस्थागत वर्चस्व भी है कि बीमार को बीमारी में आनंद देता है 

डॉ. आंबेडकर के कथन का दूसरा हिस्सा इस बात पर है कि ये बीमार लोग दूसरे भारतीयों के स्वास्थ्य और प्रसन्नता को तबाह करते हैं। इससे इन असामान्य लोंगो का सामान्य लोगों पर संस्थागत वर्चस्व जाहिर होता है 

डॉ. आंबेडकर यहाँ बीमार को गाली की तरह नहीं बल्कि असामान्यता की तरह दिखाते हैं जिसका परिष्कार सम्भव है और साथ ही उनके संस्थागत वर्चस्व से तिलमिला देने वाली घृणा को भी ज़ाहिर करते हैं।

ज़रूरी नहीं कि डॉ. आंबेडकर ने ये इतना कैलकुलेट कर सचेत रूप से कहा हो लेकिन आपकी भाषा गालियाँ और घृणा को प्रदर्शित करने के लिए कहे गए शब्द आपकी मनोभूमि को दिखाते हैं। वो बताते हैं कि अवधारणागत रूप से आप वास्तविक डेमोक्रेट हैं या नहीं।

मुझे डॉ. आंबेडकर एक वास्तविक डेमोक्रेट लगते हैं।

ब्राह्मणवादी/मर्दवादी अगर चाहें तो जो कुछ ऊपर लिखा है उसके लिए मुझे गाली देते हुए भरपूर घृणा के साथ ‘भीमटा’ कह सकते हैं।

मुझे गाली के रूप में ‘भीमटा’ कहलाना बहुत पसंद आएगा… और हां मैं ‘भीमटा’ का मतलब ‘जीजाजी’ नहीं मानता क्योंकि ऐसा मानते ही मैं मर्दवादी हो जाऊँगा।

हमे प्रतिरोध की सम्यक भाषा की निर्मिति के लिए लगातार काम करना होगा। हमें टेक्स्ट चाहिए जिसका कुछ ज़रूरी और मानवीय मतलब हो जिससे हम अपने कॉन्टेक्स्ट बना पाएँगे और इसके लिए हमें प्रतिरोध की आग चाहिए तो मानवीय संवेदनाओं के विस्तार की गुंजाइश वाला अथाह समुद्र भी चाहिए। ये आग और पानी दोनों हमारी आँखों में होने चाहिए और दोनों बराबर होने चाहिए-

कविता भी चाहिए हमें कहानी भी चाहिए
मगर लिखे गए लफ्ज़ों में मानी भी चाहिए
आग आँखों में ज़रूरी भी है नाकाफ़ी भी
ठीक उसी के बराबर वहाँ पानी भी चाहिए – मोहन मुक्त

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मोहन मुक्त, मध्य हिमालय पिथौरागढ़ ( उत्तराखंड) के निवासी हैं. वे लेखक एवं कवि हैं जिनके वैचारिक लेख कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं. ‘हिमालय दलित है’ शीर्षक से उनका काव्य संग्रह सुर्ख़ियों में रहा है.

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