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रचना गौतम (Rachna Gautam)

मैं इन दिनों अक्सर एक सोच में पड़ जाती हूँ कि मैं कभी ‘उन’ लड़कियों की तरह क्यूँ नहीं बन पाई जिनकी त्वचा सोने-सी चमकती है? जो फैराये फिरती है अपने बालों को! जिन्हें आता है परफेक्टली ग्रूमड (perfectly groomed) और सोफिसटीकेटड (sophisticated) दिखना। जिनसे मिलने उनके प्रेमी पुणे से अमरावती तक आते थे। या जो अक्सर अपने राँची वाले होस्टल से किसी को बिना बताए गुड़गाँव के किसी कमरे में 15– 15 दिन रुक कर जाती हैं। जिसमें 15 मिनट का ही सराय मुझे जीवन भर का भार दे गया। सब कुछ तो एक जैसा ही था। तो फिर जो उनसे हो पाया, मुझसे क्यों नहीं हो पाया?! मैंने तो नारीवाद के ग्रंथ भी ज्यादा पढ़े थे कि किस प्रकार दुनिया के जजमेंटस (judgements) और स्टीरियोटाइपस (stereotypes) मे खुद को नहीं तोलना। किस प्रकार अपने मन की करनी है, या खुद पर भी, बस, मन की ही होने देनी है। फिर क्यों उस पानी के ग्लास को पकड़ने में इतने हाथ काँपे थे? क्यों दस बार ज़ेहन में ये सवाल दोड़ रहा था, कि अभी जिसने आते वक़्त ये दरवाज़ा खोला है, वो लड़का अगर मुझे कभी कहीं बाहर मिला तो चिल्ला पड़ेगा कि ये वो लड़की है जो कमरे पर आई थी। और उस चीख के आगे बहुत धीमी पड़ जाएगी मेरे सारे संघर्ष, मेरी सारी उपलब्धियाँ, विचार, और दृष्टिकोण वाली कहानियाँ। मैं सिमट कर रह जाऊँगी और फिर गुम हो जाऊँगी, अपने दिमाग मे… अलहदा सी बनाई गई ‘उन’ लड़कियों की भीड़ में।

मुझे कभी समझ नहीं आया कि ‘उन’ जैसी होना एक सबसे बड़ी समझदारी था या नादानी! कभी लगता रहा एक मात्र वही हैं जो विश्व में विजेता रहीं। सबका ध्यान खींचा। उन्होंने ही जीवन को नितांत जिया। वे मेरी तरह जीने को सदा टालती नहीं रहीं, किसी उम्र के परे, सफलता के परे, मौसमो के परे। उनके मुँह से ये शब्द नहीं निकले होंगे, कि बस एक बार ये काम बन जाए, फिर जिएंगे। वैसी ही ज़िन्दगी जैसी बचपन में सोची थी या जैसी आजकल जीते हैं, सब। उन्होंने ग्रीष्म में बरसात का, बरसात में फिर पतझड़ का, पतझड़ में फिर शरद और फिर शरद में बसंत का, इंतज़ार करने की प्रवृत्ति नहीं रखी- उन्होंने सब मौसम बनाए। बिहु1 और सरहुल2 के त्योहार। फिर भी ना जाने क्यूँ मेरे मन में उन लड़कियों की प्रतिमाओं को लेकर एक टीस-सी थी। मुझे कभी भी उन लड़कियों की श्रेणि में आना पसंद नहीं आया। अब इसके पीछे का सही-सही कारण तो मैं भी नहीं कह सकती। शायद ये वो कुछ शिक्षक/दोस्त और शुभचिंतक रहे जिन्होंने मेरे भीतर की प्रतिभा को परखा था और सचेत किया मुझे उन लड़कियों के झुण्ड में जाने से। मुझे अक्सर दिखाया गया कि वो लड़कियाँ किसी गहरे कूएँ के तले में रहती हैं। मैं सतह पर हूँ। उनसे ऊपर। और मुझे यहीं होना चाहिए क्योंकि यहीं होना ही आदर्श है। सतह से आसमाँ बहुत साफ साफ दिखता है। उड़ते हुए पक्षी, हरियाली, एरोप्लेन, सब। यहाँ अपार संभावनाएँ और प्रेरणाएँ हैं। 

मैंने भी अपनी समस्त ऊर्जा, ध्यान, दृष्टि को ऐसा ही एक यंत्र बनाने में केंद्रित कर दिया जिससे उड़ा जा सके। उस नीले आसमाँ में और हासिल कर लिया जाए उड़ाकू और स्वतंत्र होने का तमगा। पर ये सफर इतना आसान नहीं था। उस कुएँ से अक्सर बहुत दिलचस्प, निश्चल्, असीम अभाध् आवाज़ें आती थीं जो अक्सर अपनी तरफ़ बहुत आकर्षित करती थीं। उस दौर में उस कुएँ में गिरना बहुत आसान था। या कहूँ, बहुत प्राकृतिक था। उन आवाज़ों से खुद को बहरा कर देने का संघर्ष तो था और अपनी पूरी शक्ति उस यंत्र को बनाने में लगाने का। यंत्र कई बार बिगड़ा, कई बार बीच में ही खुदसे ही बिखर गया, और एक-आध बार पूरा भी हुआ तो पहली ही उड़ान में वो ढगमगा कर ज़मीन में डेह गया। पर मैंने देखा है एक-आध उन कुएँ में पड़ी लड़कियों को आसमाँ में गोते खाते हुए। खोजा तो जाना की कुएँ में से आने वाली आवाज़ें हवाई जहाज़ों में उड़ने वाले लोगों को भी आकर्षित करती थी। उन्हीं लोगों ने बनाई जहाज से कूएँ के भीतर तक जाने वाली सीढियाँ, और उसी के द्वारा एक-आध लड़की को अपने अपने जहाज़ों में ले लिया। और हमारी यंत्र बनाने की कोशिश अभी भी ज़ारी हैं।

पर अब लगता हैं हर लड़की ‘उन’ लड़कियों की श्रेणि में भी नहीं आ सकती थी। ‘उन’ लड़कियों जैसा होने के लिए ज़रूरी है कि आप उन्मुक्त हों, पैरों मे बेड़ियाँ न हों और न कंधे ही बोझिल हों ज़िम्मेदारियों से, और सालों से चलते आ रहे सामाजिक दबाव से। ‘उन’ जैसी लड़कियाँ होने के लिए भाग्य लगता है जनम का। अब जिन लड़कियों का पूरा समय अपने छोटे भाई-बहनों के पालन-पोषण में निकल जाता है या जिन्हें बचपन का स्वछंदपना जीने का अवसर ही नहीं मिला। जो पूरे दिन गाँव में इस खेत से उस खेत या शहरों में इस घर से उस घर में भागती रहीं और भरी दोपहरी में सड़कें नापती रहीं। उन्हें कहाँ ही होश मिला बालों को संवारने का, रूप को निखारने का। ‘उन्होंने’ दो कोर खिलाए, और बस, खिल गईं। और अगर किसी ने किसी रोज़ खुद को बेहतर स्तिथि में पाकर चुरा लिए कुछ वक़्त, बिंदी-काजल के लिए, या पहन ली अपने भाई की पेंट और बुशर्ट। जो वो सड़क पर उतरी तो हर और से आवाज़ आई- आज कल तो चमारिनों को भी दिन लग रहे हैं। वो दौड़ी घर। खूब रोई। सब उतार दिया। फिर कभी न पहनने के लिए। और अपने अंदर की दावेदर स्त्री को मार दिया। हाँ, उसकी ये मौत, मूँछो की कहानियों जितनी प्रचलित नहीं हुईं। उनकी प्रेम की अफवाह उड़ने पर उन्हें कुएँ के तले में नहीं रखा गया। उन्हें देखा गया नाली और गटरों में। और कहा गया- इनकी तो फ़ितरत ही ऐसी है… इनकी इनकी जात में तो यही ही लिखा है।

सोशल मीडिया के उत्थान के बाद दलित व शोषित समाज के नव युवक या युविकाओं की हर ऐसी कोशिश को बड़ी हीन भावना और हास्यस्पद दृष्टि से देखा जाता हैं। घृणित वर्गीकरण करते हुए उन्हें छपरा-छपरी जैसे नामों से नवाज़ा गया है। वैश्विक स्वीकृति के साथ उन्हें फैशन (fashion) या स्टाइल (style) के समाज से कोसों दूर रहने के लिए आगाह किया जाता है। और ये एलान किया गया कि खूबसूरती, चमक, रौशनी सब पर सवर्णों का एकाधिकार है। मात्र यही लोग तय करेंगे कि किसे सराहा जाए और किसका मज़ाक बनाया जाए। और ये सब उन्हें युगों तक सजने-सँवरने से वंचित करने के लिए काफी है। ताकि वो हर भीड़ में आसानी से पहचानी जा सके। और ये बात बार-बार दोहराई जा सके कि संस्कृति पर एकमात्र उनका स्वामित्व है।

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1. बिहू असम के सबसे प्रमुख सांस्कृतिक कार्यक्रमों में से एक है, जो बदलते मौसम का जश्न मनाता है। त्योहार के दिन, किसान और स्थानीय लोग बिहू पर सफल फसल के लिए भगवान से प्रार्थना करते हैं।

2. झारखंड के रांची के बाहरी इलाके में सरहुल के अवसर पर पवित्र सरना वृक्ष के नीचे पूजा करते लोग। भूमिज , मुंडाओं के बीच इसे हादी बोंगा के नाम से जाना जाता है। हो और संथाल लोगों के बीच इसे बहा परब के नाम से जाना जाता है।

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रचना गौतम सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया में एक कानून शोधकर्ता (Law Researcher) हैं।

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