लेनिन मौदूदी (Lenin Maududi)
जब मुसलमानों में जाति का सवाल उठता है तो कई मुस्लिम विद्वान छटपटाहट के साथ कहते हैं – कुरान में जात-पात कहाँ? पर यहाँ सवाल कुरान का नहीं उसकी व्याख्या का है. किसी भी किताब की व्याख्या कोई लेखक करता है और लेखक हमारे इसी समाज के होते हैं. लेखक की समाजी हैसियत का असर उसकी व्याख्या पर भी ज़रूर पड़ता है. जब मौलाना अशराफ अली थानवी बहिश्ती ज़ेवर में ‘कुफु’ के सिद्धान्त/ उसूल को बयान करते हुए बताते हैं कि ऊँची बिरादरियों को नीची बिरादरियों के साथ विवाह के संबंध कायम नहीं करने चाहिए तो मौलाना और उनके मुरीदों को यह इस्लामी उसूल ही लग रहा था. कुरान में मसावात और बराबरी के नियम का बयान करने वाले उलेमा को इस बात का भी ज़िक्र करना चाहिए कि मुस्लिम मुल्कों में गुलामी प्रथा का खात्मा 1500 साल के इस्लाम के अस्तित्व के बाद भी पिछली सदी में ही क्यों मुमकिन हुआ? हर व्यवहारिक मसले के लिए हमारा पाला कुरान शरीफ से नहीं उसकी व्याख्या से पड़ता है. और अब तक यह बात साफ़ हो चुकी है कि कुरान की व्याख्या(तशरीह और तर्जुमा) भारत में कौन सा तबका करता है. बुनियादी तौर पर धर्म-ग्रंथों की व्याख्या का मामला भी राजनीतिक और सामाजिक होता है. इसलिए बाअसर तबकों द्वारा किये गए व्याख्याओं का जवाब भी राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन के आंदोलनों के साथ ही दिया जायेगा.
इस के अलावा जिन लोगों को लगता है कि मुसलमानों में जाति व्यवस्था हिंदुओं के मुकाबले कमज़ोर है तो उनको यह ध्यान रखना चाहिए कि जाति व्यवस्था बुनियादी तौर पर ‘सामाजिक बहिष्करण’ के लिए अस्तित्व में आयी है. इस का रूप अवश्य क्षेत्रीय और धार्मिक तौर पर भिन्न हो सकता है परन्तु इसकी मार नहीं. आखिर कितने इलाके हैं भारत में जहाँ मनु स्मृति में वर्णित जाति व्यवस्था हूबहू मिलती है? क्या दक्षिण भारत में पाई जाने वाली व्यवस्था उत्तर भारत से भिन्न नहीं? क्या पश्चिमी बंगाल और उत्तर प्रदेश में यह समान रूप से काम करती है? इसलिए ज़रूरी सवाल है कि ये निजाम किन और कितने तबकों को कितने प्रभावशाली तरीके से सत्ता, ज्ञान और दौलत के दायरे से बाहर रखता है. जहाँ तक रूप का सवाल है तो यह मुसलमानों में रोटी-बेटी के रिश्तों, विभिन्न जातियों के अलग कब्रिस्तान होने, कुछ मस्जिदों में नमाज़ के दौरान कमज़ोर जातियों को पीछे की सफों में ही खड़े होने के लिए कहने, दलित मुसलमान तबकों के साथ कुछ इलाकों में छुआछूत के प्रचलन, अशरफिया जातियों द्वारा कुछ इलाकों में कमज़ोर जातियों की मस्जिदों को जलाने आदि में नज़र आता है. जहाँ तक मज़हबी तौर पर जायज़ होने का प्रश्न है तो मसूद फलाही की किताब हिन्दुस्तान में ज़ात-पात और मुसलमान यहाँ के उलेमा और मौलवियों के जातिवादी चरित्र को साफ़ तौर पर नुमाया करती है. (पसमांदा क्रांति अभियान,२०१२)
‘पी.राजेंद्रन वि. मद्रास राज्य’ के मामले में इस विषय को स्पष्ट करते हुए मुख्य न्यायाधीश वांचू ने स्थिति को साफ करते हुए कहा कि, ‘अगर प्रश्नाधीन आरक्षण केवल जाति के आधार पर किया जाता और उसके लिए सम्बंधित जाति के सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को आधार नहीं बनाया जाता तो वह अनुच्छेद 15(1) का उल्लंघन होता परन्तु यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि जाति, नागरिकों का एक वर्ग भी है और अगर कोई जाति सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ी है, तो उस जाति को इस आधार पर आरक्षण प्रदान किया जा सकता है कि वह अनुच्छेद 15(4) के उपबंधों के अधीन, नागरिकों का सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ा वर्ग है’ (एससीआरपी 790). भारतीय समाज के यथार्थ को और स्पष्ट करते हुए वांचू आगे कहते हैं कि, ‘यह सच है कि जाति व्यवस्था हिन्दू समाज में प्रधान है और सामाजिक ढांचे के संपूर्ण ताने-बाने में वह व्याप्त है. अत: जाति की कसौटी को, पिछड़े वर्गों की पहचान करने की अन्य स्थापित व सर्वसम्मत कसौटियों से अलग करके नहीं देखा जा सकता.’
पर दिक्कत ये है कि एक हिन्दू धोबी को तो आरक्षण का लाभ मिलता है पर एक मुस्लिम धोबी को नहीं जबकि उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति एक जैसी ही होती है. डॉक्टर अयूब राईन साहब अपनी किताब “भारत के दलित मुसलमान” के पेज 9 पे लिखते हैं कि “जिस प्रकार बहुसंख्यक वर्ग हिन्दू धोबी को अछूत समझता है और उसे अपने घर के अन्दर नहीं आने देता बल्कि दरवाज़े पर ही कपड़े धोने को देता है और दरवाज़े से ही धुले हुए कपड़ा लेता है. ठीक उसी प्रकार का व्यवहार मुस्लिम धोबी के साथ मुस्लिम अशराफ़ वर्ग का होता है. Multiple Identity के साथ यही दिक्कत होती है. Kimberly Karen Shaw ने एक सिद्धांत दिया Intersectionality का जिसमें वो कहते हैं कि एक मनुष्य की अलग-अलग पहचान के आधार पर उनके साथ भेदभाव किया जाता है पर क्या होजो एक ही इंसान की कई पहचान मिलके उसके साथ ज़ुल्म करें जैसे एक पसमांदा मुसलमान को दलित जाति का होने के कारण भेदभाव का शिकार होना पड़ता है पर उसे दलित हिन्दुओं की तरह आरक्षण नहीं दिया जाता क्योंकि वो मुसलमान है. इस प्रकार हम देखते हैं कि पसमांदा मुसलमान, दलित हिन्दुओं से ज़्यादा पिछड़े हैं. Multiple identity के शिकार लोगों के साथ यही समस्या आती है.
इस समस्या का दूसरा पहलू ये है कि जब आप अपनी अलग पहचान का ज़िक्र करते हैं तो इसका तीव्र विरोध वे लोग करने लगते हैं जिनका सामाजिक-राजनीतिक हित आप की अलग पहचान के अस्तित्व को मानने से प्रभावित होता है. उदाहरण के रूप में, जैसे ही पसमांदा मुसलमान अपनी पसमांदा पहचान को ले के सजग होते हैं वैसे ही “मुस्लिम राजनीति” करने वाले लोग इसके विरोध में सतर्क हो जाते हैं. इसका कारण यह है कि इन लोगों की दुकान मुस्लिम एकरूपता के मिथ को बनाए रखने में है. जब तक आप मुस्लिम होने के नाते भेदभाव का आरोप लगायेंगे तब तक आप का विरोध नहीं होगा पर जैसे ही आप पसमांदा होने के कारण भी मुस्लिम समाज के अन्दर भेदभाव होने का आरोप लगाएंगे तो पूरे अशराफ़ बुद्धिजीवियों के पेट में मरोड़ होने लगेगा. यही कारण है कि खालिद अनीस अंसारी, मसूद आलम फ़लाही जैसे पसमांदा बुद्धिजीवियों पर हमले होने लगते हैं क्योंकि ये लोग “मुस्लिम एकरूपता” के मिथ को तोड़ रहे हैं.(जय प्रकाश फ़ाकिर, हाशिए के समाज और पहचान का संकट,राउंड टेबल इंडिया हिंदी)
…जब भी दलित मुसलमान अपनी मांग उठाता है तो अशराफ वर्ग चालाकी से दलित मुसलमानों की मांगों के बीच रुकावट डालने लगता है. इतना ही नहीं बल्कि दलित मुसलमान नेताओं का उपहास भी उड़ाते हैं ताकि वह अपना रास्ता बदलने पर मजबूर हो जाएँ और अशराफ़ समूह के लिए रास्ता बिलकुल साफ़ रहे….मिस्टर राजेन्द्र सच्चर मुसलमानों के किस समूह के हालात को दलित से भी ख़राब बताया ये देखने कि ज़रूरत है…अशराफ़ कही जाने वाली मुस्लिम जातियों का प्रतिशत सिर्फ 15% है जबकि अरजाल और अजलाफ़ (OBC and SC/ST) मुसलमानों की संख्या 85% है. कई छोटी जातियां सामाजिक प्रतिष्ट के कारण खुद को “शेख” जाति का घोषित कर रखी हैं नहीं तो अशराफ जाति का प्रतिशत और भी कम होता. अशराफ़ जातियों में जो गरीब और अनपढ़ लोग हैं वह इन्हीं छोटी जातियों के हैं जो खुद को अशराफ़ जातियों में शामिल करते हैं. दूसरी तरफ 85% छोटी जातियों के मुसलमान समूह जो अरजाल और अजलाफ़ जिसका 80% हिस्सा अनपढ, गंवार, मजदूर और राजनीतिक रूप से हाशिए के नीचे की ज़िन्दगी गुज़ारने वाला है, ऐसे में तुलनात्मक रूप से देखा जा सकता है कि किन मुसलमानों के हालात दलितों से भी ख़राब है”(डॉक्टर अयूब राईन, भारत के दलित मुसलमान,प्रकाशन २०१३, पेज १० -११)
खालिद अनीस अंसारी भी वही बात कहते हैं कि “सभी मुसलमानों को आरक्षण’ के पक्ष में चलाये जाने वाले अशराफ तबकों के अभियान का विरोध करना पसमांदा आन्दोलन का मुख्य मुद्दा है. पसमांदा मुसलमानों को पहले से आरक्षण प्राप्त हो रहा है. मंडल आयोग ने अपने लिस्ट में अशराफ मुसलमानों को कोई जगह नहीं दिया जिससे खफ़ा होकर वे यह अभियान चला रहे हैं. ‘सभी मुसलमानों को आरक्षण’ और कुछ नहीं बल्कि अशराफों को आरक्षण की श्रेणी में लाने की कोशिश है. अशराफ मुसलमान सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए नहीं हैं और राज्य की संस्थानों में उनकी नुमाईंदगी भी कम नहीं है. इसलिए अशराफ तबकों को आरक्षण नहीं मिल सकता है. पसमांदा तबकों को सभी मुसलमानों को आरक्षण के झांसे से बचना होगा और वर्तमान में हासिल आरक्षण के अधिकार को और पुख्ता बनाना होगा जिससे दलित और पिछड़े मुसलमानों की हिस्सेदारी सुरक्षित रह सके. दलित, पिछड़े और आदिवासी मुस्लमान, जो भारत में करीब 700 बिरादरियों में बंटे हुए हैं उनके मुद्दे पसमांदा आंदोलन उठाएगा और उनको संगठित करेगा. सिर्फ बिहार में पिछड़े मुसलमानों का कुछ हद तक हल निकला है दूसरे प्रदेशों और केंद्रीय स्तर पर नहीं. दलित और आदिवासी मुसलमान तो अभी गिनती में ही नहीं हैं. सबसे पहले उनकी आवाज उठानी है बहुजन के साथ मिलकर, सवर्ण-अशराफ़ के साथ मिलकर नहीं.” यहाँ खालिद अनीस अंसारी थोड़े आशंकित हैं क्योंकि धारा 341 के मुद्दे के साथ धर्म परिवर्तन का मुद्दा जुड़ा हुआ है. अगर बिना बहुजन सामाजिक गठबंधन के यह मुद्दा उठाएंगे तो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण होगा और हिंदू और मुस्लिम दलित के बीच सवर्ण-अशराफ झगड़ा लगवा सकते हैं. जिस पसमांदा-मुस्लिम एकता के लिए दशकों से मेहनत हो रही है , वे सारी मेहनत बर्बाद हो सकती है.
सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण नीति ने देश की एकता को मजबूत किया है. आज देश के सभी हिस्सों और धर्मो के दलित-आदिवासी-ओबीसी में भावनात्मक एकता तैयार हो रही है जो देश को विघटनकारी तत्वों से सुरक्षित रखने में बड़ी भूमिका निभायेगी. एक सवाल इन अशराफ़ नेताओं/क्रांतिकारियों से ये भी पूछा जाने वाला है कि जो संस्थाएं अशराफों ने बनाईं है जैसे आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमात-उल-उलेमाए हिन्द, बिहार उर्दू अकेडमी आदि उसमे पसमांदा मुसलमानों को कितना आरक्षण दिया गया है. और रही बात धार्मिक रूप से आरक्षण की तो पसमांदा आन्दोलन का मानना ये है कि हमारे संविधान, राजनीति और सामाजिक ताने-बाने का आधार धर्मनिरपेक्षता है. आधुनिक भारत का इतिहास इस बात का गवाह है कि आजादी के पहले और बाद जब भी हमारे देश में धर्म के आधार पर कोई बड़े निर्णय लिए गए हैं, धार्मिक कट्टरपंथ मजबूत हुआ है, सांप्रदायिक हिंसा में अनगिनत निर्दोषों की मौत हुई है, देश की एकता पर आघात हुआ है और विश्व बिरादरी में एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में हमारे देश की छवि को बट्टा लगा है. इसका असर हमारे देश की आर्थिक विकास पर भी हुआ है. हम सम्पूर्ण मुस्लिम आरक्षण को ऐसा ही एक सांप्रदायिक कदम मानते हैं जो लागू होने पर धार्मिक कट्टरपंथ को मजबूत साबित करने वाला और साम्प्रदायिक वातावरण को विषाक्त बनाने वाला साबित होगा.
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