KUNAL RAMTEKE
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समतामुलक समाज निर्माण के संदर्भ मे छात्र आंदोलन से एक अपील

कुणाल रामटेके (Kunal Ramteke)

KUNAL RAMTEKEमैं सुझाव में आपके सम्मुख इन अंतिम शब्दों को रखता हूँ- शिक्षित बनो, आन्दोलन करो और संगठित हो, स्वयं पर विश्वास रखो व् उम्मीद कभी मत छोड़ो. चूँकि न्याय हमारे पक्ष में है, तो नहीं लगता कि इस लड़ाई को हार जाने का कोई कारण हो सकता है. लड़ाई तो मेरे लिए ख़ुशी की बात है. यह लड़ाई तो पूर्णतम अर्थ में आध्यात्मिक है. इसमें कुछ भी भौतिक या सामाजिक नहीं है. क्योंकि हमारी लड़ाई धन-दौलत व् सत्ता की नहीं है, यह तो आज़ादी की लड़ाई है. यह तो मानव व्यक्तित्व के पुनर्दावे की लड़ाई है.

[“My final words of advice to you are Educate, Agitate and Organize; have faith in yourself. With justice on our side I do not see how we can lose our battle. The battle to me is a matter of joy. The battle is in the fullest sense spiritual. There is nothing material or social in it. For ours is a battle not for wealth or for power. It is a battle for freedom. It is a battle for the reclamation of the human personality.” – Dr. B. R. Ambedkar (Bombay : Popular Prakashan, 3rd ed. 1971, p: 351)]

समग्र भारतीय जाति/वर्ण/वर्ग/धर्म/लिंग भेद तथा शोषणाधिष्टित व्यवस्था के विरुद्ध ज्ञानमीमांसात्मक प्रतिरोध की आवाज़ बुलंद करती ‘फुले-शाहू-अंबेडकरवादी’ विचारधारा दबे-कुचले, दलित, शोषित एवं वंचित समाज की मूलगामी अभिव्यक्ती तथा सर्वांगीण शाश्वत विकास के लिये सार्वत्रिक सकारात्मक तथा सर्वसमावेशकता का मार्ग प्रशस्त करती है. भारतीय संविधान के सकारात्मक उपयोजन के माध्यम से आज जहाँ सकल आधुनिकतावादी, समतावादी समाज ‘नवं भारत’ का सपना बुन रहा है, वहीँ सार्वत्रिक समता, सामाजिक आर्थिक न्याय, लिंगभेद रहित जीवन, तथा स्वातंत्र्य के उपयोजन का आग्रह भी जनमानस में है. 

मात्र, समकालीन परिदृश्य में बढते सामाजिक – आर्थिक गैरबरबारी, राजनैतिक प्रतिनिधित्व के मामले मे बढाया गया ‘चमचायुग’ तथा धार्मिक कट्टरता के अवरोधों के बीच जहाँ समतावादी महापुरुषों का विचार अवलंबन से दूर नज़र आता है, वहीँ इनके नामपर केवल राजनैतिक रोटियाँ सेकने की अवसरवादी मानसिकता अत्याधिक घातक साबित हो रही है. इसी बीच उच्च मानवीय मूल्य, सामाजिक न्याय एवं समता के बुनियादी सिद्धांतों का अवमूल्यन तथा समाज पर सदैव थोपी जा रही एक धर्मीय आचार पद्धती नकारात्मक वातावरण निर्मिती में कारगर साबित हो रही है. देश भर में जहा विशिष्ट संकुचित राष्ट्रवाद हावी होता जा रहा है वहीँ दलित, आदिवासी, बहुजन, अल्पसंख्यक समाज पर बढ़ते अन्याय अत्याचार की खबरों ने विषमतावादी तत्वों के द्वारा प्रतिगामी व्यवस्था निर्माण के दावों को मजबूती प्रदान की है. इसी संकुचित राष्ट्रवादी तत्वों में समाज का उपेक्षित तबका आज स्वयं के ही राष्ट्र में ‘राष्ट्र विहीन’ होता दिखाई देता है. इन सभी नकारात्मक क्रियाकलापों के बीच समकालीन समस्याओं का उत्तर हमें अंबेडकरवादी विचारधारा के सार्वत्रिक तथा सर्वसमावेशक उपयोजन में दिखाई देता है. इस आत्यंतिक मानवतावादी एवं हितकारी तत्वज्ञान के अवलंबन की जवाबदेही आज समूचे ‘प्रोग्रेसिव्ह’ तथा समता का विचार माननेवाले हम सभी की है.

आज देश और दुनिया के भयग्रस्त वातावरण में जहा हम बदलाव की बात करते हैं, वहीँ बाबासाहब अंबेडकर जैसे महापुरुषों के बुनियादी सिद्धांतों एवं विचारों का हो रहा गैर इस्तेमाल, उसका अवसरवादी सैद्धान्तिकीकरण तथा उन सामाजिक क्रांतिकारी विचारों का कुछ संकुचित तबकों द्वारा किया जानेवाला अत्याधिक पंथीयकरण समाज के लिए पूर्णतः घातक तथा निषेधार्य है. इसी बीच स्वार्थी एवं मूर्खतापूर्ण ढंग से स्वयं के हितसंबन्धों की मजबूती को ध्यान में रखकर कुछ लोग एव संगठन इन महापुरुषों के नाम का केवल इस्तेमाल कर इन तथाकथित अंबेडकरवादीयों के संकुचित निजी स्वार्थ के आड़े आने वाले एवं उनके गैर अंबेडकरवादी कृति को उजागर करते लोगों के ऊपर अंबेडकरद्रोही, कम्युनिस्ट, संघी, हिंदुत्ववादी होने के फर्जी प्रमाणपत्र देने की कृति का, एक हृदय से ऐसी सोच का हम सभी अम्बेडकरवादीयों को पुरजोर विरोध करना चाहिए. फुले-शाहू-अम्बेडकर किसी एक समाज तथा जाति की क़तई विरासत नहीं हो सकते. अपितु जो व्यक्ति तथा सामाज, इन महापुरुषों के विचारों को विवेकशीलता के पायदान पर लागू करने का प्रयास अपने निजी एवं सार्वजनिक जीवन में करता है वे उन सब के हैं. 

अर्थात, किसी एक समाज के अंबेडकरवादी तथा अन्य समतावादी पक्षधर महापुरुषों पर कथित एकाधिकार को नकारते हुये हमें समाज की सभी जातियाँ, सभी लैंगिक संघ, शोषित, वंचित, दलित, आदिवासी, पीड़ित, बुद्धिजीवी, श्रमजीवी, विद्यार्थी आदि सभी की एकजुटता प्रस्थापित कर सामाजिक क्रांति का आगाज़ करना होगा.  

अर्थात, यह जवाबदेही सबसे ज्यादा उनकी है जिन्होंने अंबेडकरवादी होने का दावा किया है. विवेक के माध्यम से तथा परिप्रेक्ष को देख कर हमें ‘लॉन्ग टर्म’ नीति को ध्यान में रखकर अंबेडकरवाद का प्रचार एव प्रसार पर ध्यान देना चाहिए.  तथा सभी के विचारों का आदर करना चाहिए. अर्थात किसी भी अंबेडकरवादी सिद्धांतों को, बिना किसी नकारात्मक छेड़खानी के हम जरूर यह कर सकते है. 

किसी भी तरह के सकारात्मक परिवर्तन के लिए बाबासाहब अंबेडकर ने ‘शिक्षा’ के महत्त्व को उजागर किया है. उनके द्वारा महाराष्ट्र के नागपुर शहर में दिनांक 18-19 जुलाई 1942 में आयोजित ‘ऑल इंडिया डिप्रेस्ड क्लासेस कॉन्फ्रेंस’ में दिया गया ‘पढ़ो, संघर्ष करो, संगठित हो’ का ऐतिहासिक नारा आज हमारे प्रतिरोध का मूलमंत्र है. अतः दलित बहुजन समाज का कुछ तबका भारतीय संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों के माध्यम से पढ़ा और उच्च स्थान ग्रहण करने में लग गया. मात्र, प्रस्थापितत्व की ओर झुकते इस तबके ने बाबासाहब के अन्य सिद्धांत एवं सन्देश को भूलाकर स्वार्थ में लिप्त हो ‘पे बॅक टू सोसायटी’ के विज़न से दूर चला गया. आज हमें मूलभूत अंबेडकरवाद के उपयोजन पर ध्यान देना होगा. 

आज का दलित बहुजन आंदोलन एवं राजकारण जहाँ व्यक्ति तथा अवसरवादी क्रियाकलापों में लिप्त हैं, वहीँ जब तक हमारे आंदोलन तथा संगठन संकुचितता से दूर नहीं होते, तब तक हम समता के उद्देश्य से हम कोसों दूर चले जायेंगे.  

छात्र आंदोलन तथा अंबेडकरवाद

भारतीय संविधान के प्रमुख शिल्पी डॉ. बाबासाहब अंबेडकर ने सामाजिक उत्थान में विद्यार्थी वर्ग की भूमिका पर जोर देते हुये, उन्हें अपने एव अपने सामाजिक अधिकारों की रक्षा हेतु उच्च शिक्षा पर लक्ष केंद्रित करने को कहा है. मात्र, आज के दौर में जहा देश के शैक्षणिक संस्थान नवब्राह्मणवादी, जाति/वर्गवादी सत्ता के पैरों तले अपने आदर्शों को कुचलने पर मजबूर हैं वहीँ अगर एक छात्र होने के नाते अपनी शिक्षा के साथ ही इन संस्थानों के आदर्शों की रक्षा भी हमारा कर्तव्य है. अर्थात, संवैधानिक, शांतिपूर्ण ढंग से ‘पढ़ाई और लड़ाई’ हमें मजबूती से करनी होगी. 

नि:संशय, हमारे पास हमेशा से रही संसाधनों की कमी हमारे विद्यार्थी जीवन को ऐतिहासिक रूप से प्रभावित करती है. मात्र,  अगर हम व्यवस्था के शोषण के खिलाफ प्रतिक्रियाहिन रहें तो आनेवाले समय में हमारे अन्य छात्र शिक्षा के मूलभूत अधिकार से ही वंचित होंगे और इसमें केवल प्रतिक्रिया व्यक्त कर राजनैतिक ही नहीं बल्कि नैतिक रूप से भी हमें सामाजिक दायित्व को स्वीकार करना होगा. 

देश भर में चलते आंदोलन जहाँ हमारा लोकतंत्र मजबूत होने का उदहारण प्रस्तुत करते हैं, वहीँ हमारा इन आंदोलनों के प्रति उदासीन रहना देश में नकारात्मक सन्देश देता है. मात्र, इसका मतलब यह नहीं कि हम भी भीड़ का हिस्सा हो जाएँ. हमारा मार्ग सत्य, शांति, सौहार्द एवं संविधान का है.    

टाटा सामजिक विज्ञानं संस्था के छात्र आंदोलन के परिप्रेक्ष में

केवल एक व्यक्ति, संस्था, समाज एवं संगठन की नकारात्मक छवि पेश कर हमारी कथित महानता को उजागर करना हमारा उद्देश्य नहीं होना चाहिये. बल्कि हमें हमारे विचार, तत्वज्ञान, आदर्श, कृति कार्यक्रम की सकारात्मक तथा वास्तविक आलोचना कर समयोचित विवेकवादी तथा सर्वसमावेशक सर्वहितकारी भूमिका का निर्वहन करना चाहिए. केवल ‘अंबेडकराईट’ नाम देने से हमारा संगठन अंबेडकरवादी सिद्ध नहीं होता. उसके लिए सर्वसमावेशक कार्यक्रम हमें लागू करना होगा. संगठन में एक जाति विशेष की अत्याधिक निर्णयात्मक भूमिका संगठन की व्यापकता को संकुचित करती है. क्या एक अंबेडकरवादी संगठन होने के नाते हम इस विचार को माननेवाले एवं इन विचारों पर चलने वाले व्यक्ति/समूह को अपने साथ नहीं जोड़ सकते? नि:संशय, ऐसा हो सकता है. जरुरत है हमारे विचारों को विस्तृत करने की. हमारा अंबेडकरवादी कहलाने वाला संगठन यदि संस्थात्मक तथा राष्ट्रिय स्तर पर केवल एक जाति समूह के हितों की रक्षा का दावा करे तो यह हमारे बुनियादी सिद्धांतों के ही विरूद्ध होगा. 

हमारे महान आदर्श डॉ. बाबासाहब आंबेडकर द्वारा दिनांक 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में दिए गए ऐतिहासिक संबोधन में उन्होंने “आज हम एक विसंगत विश्व में प्रवेश कर रहे है. एक और जहाँ राजनैतिक समता प्रस्थापित हो रही है वहीँ दुसरी और सामाजिक विषमता अस्तित्व में है. इस समय में यह संविधान अच्छे ढंग से लागू नहीं किया गया तो संविधान का यह ढांचा नष्ट हो कर रह जाएगा” यह बात कही थी. अर्थात् उनका यह विधान आज के ‘कैम्पस पॉलिटिक्स’ में कार्यरत हमारे संगठन पर भी लागू होता है. क्या भारतीय संवैधानिक अधिकार एव दायित्वों की बात करने वाला हमारा संगठन हमारे ही संगठन के संविधान को सही मायनों में लागू कराने की इच्छा रखता है? इस विषय में अनेक चर्चा एवं निवेदनों के बावजूद भी न आता बदलाव हमें आलोचना पर मजबूर कर नवनिर्माण को प्रेरित करता है. अगर हमारा छात्र संघटनात्मक संविधान सर्वसमावेशी कार्यक्रम को लागू कराने में अक्षम है, तो बदलाव की बात करना ही बेहतर होगा.  

संगठन के मामले केवल दो-चार लोग मिलकर निर्णय नहीं ले सकते. अर्थात, यह हमारे बुनियादी लोकतंत्र के विरुद्ध होगा/होता है. ऐसी अवस्था में संगठनात्मक लोकतंत्र मजबूत करने तथा उसके उपयोजन पर जोर देने का प्रयास आज महत्वपूर्ण है. 

प्रातिनिधिक जनतंत्र में विश्वास रखने वाले हमारे छात्र संगठन द्वारा निर्वाचित हमारे छात्र प्रतिनिधि अंत में केवल कुछ लोगों के हाथ की कठपुतलियाँ भर साबित होती हैं. अपितु, संगठन की मेहनत से चुनाव जीतने वाले छात्र प्रतिनिधि का संगठनात्मक कार्य के प्रति जवाबदेही और भी बढ़ जाती है. ऐसे में संगठन के निर्णय के बावजूद भी यह प्रतिनिधि एकल निर्णय पद्धति से लोकतंत्र एव संगठन को ध्वस्त करने का काम करते हैं. और आश्चर्य की बात यह है कि, संगठन के ही तथाकथित बड़े लोग उनके पक्षधर होते हैं. क्या संगठन के लिए यह अच्छा है? 

जवाबदेही के निर्वहन के बारे में भी हमको सजग रहते हुए कुछ मूलगामी कदम उठाने होंगे. हमारा संगठन कोई बिना सर की मुर्गी नहीं जो अस्तित्वहीनता की खाई में कूद पड़े. हम यह चाहते है कि संगठन के निर्णय, यश – अपयश आदि सब की जिम्मेदारी सुनिश्चित की जाये. 

किसी भी संगठन में विविध मत प्रदर्शन को मुक्त स्वतंत्र प्रदान किया जाना तथा उन सकारात्मक विचारों का स्वागत करना महत्वपूर्ण होता है. इस बीच व्यक्तिगत मतभेद तथा मुद्दे दूर रख संगठन के हित के बारे में विचार होना जरुरी है. मात्र, अन्य सदस्यों को भिन्न विचार होने पर तत्काल अंबेडकरद्रोही सिद्ध करने की होड़ में लग जाना संगठन के सामूहिक विवेक पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है. 

‘कॉमन मिनिमम प्रोग्राम’ की राजनीति 

आज के दौर में हावी होती आत्यंतिक जाति/धर्म/वर्ग/लिंग/ भेदवादी ताकतें सत्ता के माध्यम से वही प्रतिगामी व्यवस्था लागू कराने में लगी हुई है. इसी बीच केवल एक व्यक्ति, जाति, संगठन, पार्टी, प्रदेश आदि के दम पर हम हमारे ऐतिहासिक प्रतिरोधी संघर्ष में कामयाब नहीं हो सकते. अर्थात, हमारा संघर्ष किसी भी प्रकार के सत्ता या संपत्ति के लिए नहीं बल्कि मानवीयता के उत्थान के लिए है. इसी कारण संघर्ष में जय-पराजय की अवास्तविक चिंता किये बगैर हमें हमारा आंदोलन चलाना होगा. इस समतावादी संघर्ष में हमें उन सभी ताकतों को एकजुट बनाना होगा जो दलित, शोषित, वंचित समाज के हित में उक्ति एवं कृति के माध्यम से एक है. ऐसे ‘कॉमन मिनिमम प्रोग्राम’ के माध्यम से देश की सभी अंबेडकरवादी, धर्मनिरपेक्ष, समतावादी ताकतें एक होकर शोषितों के पक्ष में संघर्ष करे. अर्थात, इस का मतलब यह नहीं कि हम हमारी आवाज विलीन कर दें. 

हम आशा करते हैं कि, आज की समस्याओं को ध्यान मे रखकर, हमारे जय एवं पराजय से सीखकर आंबेडकरवादी विचारधारा पर चलने वाले समतामूलक समाज के निर्माण में हम सभी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायें. जय भीम!

~~~

 

 

कुणाल रामटेके, दलित और आदिवास अध्ययन एवं कृति विभाग, टाटा सामजिक विज्ञानं संस्थान (मुंबई) में विद्द्यार्थी हैं. उनसे ramtekekunal91@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

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