आरती रानी प्रजापति (Aarti Rani Prajapati)
माना जाता है कि फिल्में समाज का आईना होती हैं, जैसा समाज वैसी फिल्म। बदलते समाज के साथ फिल्मों ने भी बदलना शुरू किया है। समाज में ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता दोनों ने रूप बदला है। इन दोनों को चुनौती देते दलित और महिला वर्ग उभरकर सामने आ रहे हैं। आज लड़कियां भी पढ़ रही हैं चारदिवारी से चांद तक का सफर उन्होंने तय किया है। लेकिन यह हर लड़की की कहानी नहीं है। कुछ प्रतिशत महिला-वर्ग ही सशक्त हो पाया है, बाकी आज भी खुली हवा में सांस लेने से लेकर पैदा न होने तक की पीड़ा को झेल रही हैं। यही हाल दलित समुदाय का भी है। आज दलित समाज के लोग बड़े-बड़े पदों पर आसीन हैं। उनके पद से नीचे कई लोग कार्यरत भी हैं। लेकिन, क्या यह स्थिति पूरे दलित समाज की है? उना कांड, रोहित वेमुला और मुथुकृष्णन की सांस्थानिक हत्या, अनीता की हत्या या अभी 13 प्वाइंट रोस्टर सिस्टम, इस बात की गवाही इसे साबित करते हैं कि भले ही दलित पिछड़ा समाज पढ़-लिख कर आगे आया है और समाज में आज भी इन्हें खुश दिल से स्वीकार नहीं किया जाता। हाल ही में आई फिल्म लुका छिपी अपने हंसीले अंदाज में बदलती ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक संरचना को पेश करती है।
फिल्म तिवारी और मिश्रा जी के बेटे-बेटी की प्रेम कहानी पर है। लड़की के पिता एक राजनेता है जो हिंदू संस्कृति की रक्षा का जिम्मा उठा कर घूम रहे हैं। अपनी पत्नी की सरेआम शक्ल दिखाने पर भी उन्हें परहेज है। लिहाजा पत्नी इस आधुनिक-युग में घुंघट करती है। कहानी का क्षेत्र मथुरा जनपद है। कहानी में एक मुस्लिम पात्र है जिसने लिव-इन-रिलेशनशिप में रह कर पूरे मथुरा में अपना नाम सुर्खियों में कर दिया है।
ब्राह्मण परिवार के यह नायक-नायिका प्रेमी शादी से पहले लिव-इन-रिलेशनशिप में रहने का विचार करते हैं। इस ख्यालात से कहानी आधुनिकता की परिचायक बन जाती है। इसमें लड़की समाज की शर्म-लाज पीछे छोड़ कर लड़के से लिव-इन की बात कहती है। जिसका यह भी अर्थ है कि यदि लिव-इन-रिलेशनशिप में इन दोनों की नहीं बन पाई तो शादी नहीं की जाएगी। यह सोच फिल्म में लाना एक बड़ा कदम है। यह वह समाज है जो यह मानता है कि लड़की का जीवन शादी बिना अधूरा है। ऑनर किलिंग वाले समाज में यह फिल्म लिव-इन-रिलेशनशिप की बात करती है लेकिन, पति पत्नी बन कर। नायक-नायिका लिव-इन में तो रहते हैं पर लड़की समाज के डर से मांग में सिंदूर और गले में मंगलसूत्र पहनती है। समाज से लड़ने की ताकत इन में नहीं है। बस एक एक्साइटमेंट है कुछ अलग करने का। आज के युवा सब को बताते हुए भी लिव-इन में रहते हैं, ऐसे में इनका पति पत्नी बन कर ही रहना आधुनिक होते हुए भी सड़ी हुई परंपराओं को ढोने जैसा लगता है।
पिछले साल आई फिल्म धड़क (एक मराठी फिल्म ‘सैराट’ का रीमेक, जो कि बुरी तरह फलाप फिल्म रही जबकि ‘सैराट’ ने कई नए कीर्तिमान स्थापित किये थे) भी एक प्रेम-कथा पर आधारित थी। उस फिल्म में भी नायक-नायिका शादी से पहले एक साथ रहते हैं पर वे लोग पति पत्नी बन कर नहीं रहते। अगर आधुनिकता की बात की जाए तो धड़क फिल्म लुका छिपी से एक कदम आगे की महसूस होती है। जहाँ लड़का और लड़की समाज की प्रेम न करने की परंपरा को तो तोड़ते ही हैं लेकिन साथ ही जातिगत बंधन को भी अपने प्रेम के बीच स्वीकार नहीं करते। फिल्म लुका छिपी में आधुनिक होने का रोल अदा करने वाली लड़की इसीलिए परेशान हो जाती है क्योंकि उसने वास्तव में शादी के सात फेरे और सिंदूर मंगलसूत्र को अपने पति द्वारा नहीं धारण किया। यहां ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता के बदलते रूप को समझा जा सकता है। ये दोनों बार-बार प्रयास करते हैं कि किसी तरह मंत्रों के साथ, फेरे लिए जाएं। शादी की जाए। यानी धर्म की मनमानी व्याख्या। पढा-लिखा वर्ग जो प्यार के महत्व को समझता है उसके लिए भी शादी करना जरूरी है। यहां मजबूत होती ब्राह्मणवादी, पितृसत्ता को देख सकते हैं। मतलब, शादी एक जरूरी चीज है जिसके बिना जीवन अधूरा है। बिना शादी लिव-इन में रहा जा सकता है, सब कुछ किया भी जा सकता है। शादी सही मायनों में शारीरिक संबंधों की वैधता का प्रमाण पत्र है। शादी के बाद नायिका को घर में रहना है, घर के काम करने हैं, ससुराल में है तो, पूरे कपड़े पहनने हैं। यानी एक आदर्श स्त्री बनकर रहना है। उस व्यवस्था को अपनाना है जिसे मनुस्मृतिकार मनु ने लागू किया था। लड़की पढ़ी-लिखी सुंदर और ब्राह्मण परिवार से थी इसीलिए लुका-छुपी फिल्में उसे उसके ससुराल वाले अपना लेते हैं। वरना गैर-ब्राह्मण परिवार की शादियों में क्या हाल होता है यह धड़क फिल्म से समझा जा सकता है। कुछ दिन पहले प्रणय केरल के एक दलित लड़के की हत्या ने इस समाज के ब्राह्मणवादी चेहरे को पूरी तरह दिखा दिया था। ‘हम ब्राह्मण हैं’ यह वाक्य भी बार-बार फिल्म में दोहराया जाता है। जो सवर्ण समाज के ब्राह्मणवादी अहम को पूरा करता है।
फिल्म अवसरवादी राजनीति को भी दिखाती है। संस्कृति के रक्षक की बेटी लिव-इन-रिलेशनशिप में रह रही थी इससे समाज में अपनी बदनामी होगी। वोट भी जाएंगे। अलग वोट के लिए सोच में बदलाव किया गया। जिस मुस्लिम लड़के के नाम पर यह संस्कृति रक्षक मरने-मारने पर उतारू थे, उसी को अपनी पार्टी का चेहरा बनाया गया। अपनी पत्नी का घूंघट सबके सामने खोल दिया गया। हम फिल्म के माध्यम से इस राजनीति को समझते हैं हिंदूवाद-हिंदू संस्कृति के नाम पर जिनका शोषण हो रहा है वह अधिकांश प्रतिशत वंचित तबके का है। वोट उन्हीं का चाहिए इसीलिए सहानुभूति और दया दिखाते रहो और जनता को उल्लू बनाते रहो। पितृसत्ता को इस तरह पेश करो कि लड़की आज़ाद तो हो लेकिन जकड़न में रहे। ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता की यह मंशा समझने की जरूरत है। मंत्र, रस्मो-रिवाज में बंधी लड़की किसी भी कोण से आधुनिक नहीं हो सकती। आधुनिकता की यहां यह परिभाषा सिर्फ एक दिखावा है और कुछ नहीं।
हिंदी सिने जगत अभी भी अपनी ब्राह्मणवादी परिधि से बाहर निकलने को तैयार नहीं और उसी में रह कर बड़े मुद्दों को एड्रेस करने की कोशिश कर रहा है जबकि वह परिधि या दायरा खुद ही मानवता विरोधी है. कहीं न कहीं अपने सिस्टम को वैधता देना और उसी में अपने हकों की गोटी को भी आगे सरका देना, कमोबेश यही हो रहा है. जबकि इसके विपरीत बहुजन समाज के पास सावित्रीबाई फुले और जोतिबा फुले जैसे उदहारण हैं जो एक साथ होते हैं और उनके रिश्ते नए फलक छूते दिखाई पड़ते हैं. ये फ़िल्में कितने भी मौजूदा हालातों से दो चार होती नज़र आयें लेकिन बहुजन नायकों के जीवन से वह कोई ईमानदारी भरा सबक ले, ये फिलहाल दूर की कौड़ी लगती है.
~~~
आरती रानी प्रजापति जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ़ लैंग्वेजेज डिपार्टमेंट में हिंदी साहित्य की शोधार्थी हैं और ‘बिरसा अंबेडकर फुले स्टूडेंट्स एसोसिएशन ‘ (BAPSA) की सदस्य हैं.
Magbo Marketplace New Invite System
- Discover the new invite system for Magbo Marketplace with advanced functionality and section access.
- Get your hands on the latest invitation codes including (8ZKX3KTXLK), (XZPZJWVYY0), and (4DO9PEC66T)
- Explore the newly opened “SEO-links” section and purchase a backlink for just $0.1.
- Enjoy the benefits of the updated and reusable invitation codes for Magbo Marketplace.
- magbo Invite codes: 8ZKX3KTXLK