राहुल सोंनपिंपले (Rahul Sonpimple)
करिश्मा मायावी दुनिया का शब्द है लेकिन नेतृत्व को परिभाषित करने के लिए यह शब्द आम इस्तेमाल होता है. करिश्माई नेतृत्व को आमतौर पर आवश्यक और सहमति के रूप में लिया जाता है, खासकर राजनीति में. हालांकि, करिश्माई नेतृत्व का इतिहास इस तरह के रोमांसवाद को जारी रखने की अनुमति नहीं दे सकता है. हिटलर के नेतृत्व में नाज़ीवाद और मुसोलिनी के नेतृत्व में इतालवी फासीवाद करिश्माई नेतृत्व के दो सबसे चर्चित और निराशाजनक उदाहरण हैं. दरअसल, करिश्मा या जादुई व्यक्तित्व को एक नेता के असाधारण गुण के रूप में ही बताया गया है जो अलौकिक और दैवीय शक्ति से संपन्न होता है.
करिश्माई-नेतृत्व की अवधारणा के वास्तुकार मैक्स वेबर के अनुसार करिश्मा नेतृत्व वैधता स्थापित करने के तरीकों में से एक है. फिर भी, करिश्माई नेतृत्व की प्रकृति और महत्व कैसा है, ये बातें सामाजिक संरचनाओं और समुदायों की व्यक्तिपरकता से निर्धारित होती हैं जिसमें यह (करिश्माई नेतृत्व) विकसित और संचालित होता है. उदाहरण के लिए, जहां गांधी का करिश्मा उनके ‘सेवा’ के आदर्श में निहित था जो उनके उच्च-जाति के हिन्दू अनुयायियों को भाया, जबकि अम्बेडकर का करिश्मा न्याय के दर्शन के इर्द-गिर्द घूमता था जिसने उनके दलित वर्गों से आते अनुयायियों को आकर्षित किया. गाँधी की सार्वजनिक रूप से अर्ध-नग्न गरीब व्यक्ति (फकीर) के रूप में उपस्थिति ने उन्हें उपनिवेशित जनता (यानि उस समय की गुलाम जनता) का प्रतिनिधित्व करने के लिए नेतृत्व की वैधता हासिल करने में मदद की. इसके विपरीत, अम्बेडकर का व्यक्तित्व, सार्वजनिक रूप से, एक आधुनिक अंग्रेजी भाषा में शिक्षित एक उग्र बैरिस्टर के रूप में, और उस चेतना के निर्माण के रूप में देखा गया था जो अभिजात्य वर्ग के उस रोमांसवाद के खिलाफ था जो वे अक्सर गरीबी और गरीबों पर होने वाले अत्याचार को लेकर रखते हैं.
विशेष रूप से, गांधी और अम्बेडकर दोनों ने अपने करिश्मे को मजबूत संगठनात्मक और वैचारिक समर्थन के साथ बनाए रखा. इसके अलावा, एक कमजोर वर्ग के नेता के लिए करिश्मा बनाए रखना और भी चुनौतीपूर्ण है क्योंकि उनके पास आवश्यक संसाधनों, सामाजिक-सांस्कृतिक पूंजी की कमी है, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उनका करिश्मा लोकप्रिय-मानक के नेरेटिव के अनुरूप नहीं है.
परंपरागत रूप से अभिजात्य वर्ग के नेतृत्व को उत्पीड़ित जनता का नेतृत्व करने के लिए प्राकृतिक अधिकार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. उदाहरण के लिए, एक बार फिर, गांधी का तत्कालीन अछूतों के नेता के रूप में अम्बेडकर के दावे के खिलाफ और खुद को सभी हिंदुओं के प्राकृतिक नेता के रूप में स्थापित करना, सबाल्टर्न स्वायत्तता के अभिजात्य विरोध का एक उत्कृष्ट उदाहरण है.
इसके अतिरिक्त, अम्बेडकर के नेतृत्व को उच्च जाति के हिंदुओं द्वारा उस आधार पर आँका गया जो ब्राह्मण शास्त्रों में निहित हिंदू नैतिकता पर आधारित थी. गांधी, फिर भी, उसी ब्राह्मणवादी नैतिकता और नैतिकता से संपन्न महात्मा-पन का आनंद लेते थे. दूसरी ओर अम्बेडकर ने अपने समर्पित समर्थकों और अपनी संगठनात्मक परिवर्तनकारी राजनीति के माध्यम से अपने नेतृत्व को कायम रखा. अम्बेडकर के बाद के दलित नेतृत्व के इतिहास में नेतृत्व के एक वीरों वाला उत्थान भी चिन्हित है और पतन भी. दादा साहब गायकवाड़, जिनके अनुयायी बड़ी संख्या में थे, लेकिन लंबे समय तक अपने करिश्मे को बनाए नहीं रख सके और उनके नेतृत्व में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) दो बार विभाजित हुई और तब से, पार्टी को फिर से एकजुट करने के बहुत प्रयासों के बाद भी खंडित है.
इसी बीच 1972 में एक युवा शहरी-झुग्गी-झोपड़ी-शिक्षित दलित युवा संगठन, ‘दलित पैंथर’ का उदय हुआ जिसका कारण था दलितों पर हिंसक अत्याचार और उनकी आर्थिक कमजोरियाँ. दो प्रमुख-करिश्माई नेताओं ‘ढाले’ और ‘ढसाल’ के नेतृत्व में इसकी उग्रवादी प्रकृति और ‘जैसे को तैसा’ वाली रणनीतियों ने दलित समुदायों से व्यापक लोकप्रियता और समर्थन प्राप्त किया, लेकिन अकेले नेतृत्व का करिश्मा लंबे समय तक उनके आंदोलन को बनाए नहीं रख सका. प्रसिद्ध ढाले-ढसाल विभाजन के परिणामस्वरूप दलित पैंथर का दुखद अंत हुआ. जबकि आरपीआई और दलित पैंथर के करिश्माई नेतृत्व ने उनकी पहुंच को व्यापक बनाने में मदद की, वैचारिक एकरूपता, संगठनात्मक कमजोरियों की अनुपस्थिति, कोई कैडर नहीं बल्कि केवल अनुयायी, राज्य की जांच, उच्च-जाति के राजनीतिक दलों और संगठनों द्वारा निरंतर हमले, और कई अन्य मुद्दे उनके पतन का कारण बने. पहले के शिथिल संगठित आंदोलनों और बिखरते करिश्माई नेतृत्व के अनुभवों के परिणामस्वरूप कांशी राम और डी.के. खापर्डे के तत्वावधान में 1973 में बामसेफ [अखिल भारतीय पिछड़ा (एससी, एसटी और ओबीसी) और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी संघ] का गठन हुआ. इसके सदस्य सरकारी कर्मचारी थे. बामसेफ का लक्ष्य एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक कर्मचारियों को ‘समाज को लौटाने’ (pay back to society) के आदर्श वाक्य के साथ एकजुट करना और एक थिंक-टैंक और बुद्धिजीवियों का निर्माण करना रहा, जो समुदाय में जाकर जागरूकता फैलाने का काम करते. बामसेफ को व्यक्तिगत करिश्माई सत्ता वाला नहीं बल्कि संस्थागत-सामूहिक नेतृत्व के साथ गैर-आंदोलन-प्रशिक्षित कैडर-आधारित संगठन बनाने की लाइन पर बनाया गया था. अपने शिक्षित सरकारी कर्मचारीयों और प्रशिक्षित लोगों के नेतृत्व के साथ बामसेफ आंदोलन को बनाए रखने के लिए संसाधनों को सफलतापूर्वक व्यवस्थित कर सका.
बामसेफ का विकास महाराष्ट्र सहित विभिन्न उत्तर और दक्षिणी राज्यों में अप्रत्याशित रूप से हुआ. जबकि इसकी संस्थागत सक्रियता ने दलितों के बीच जमीनी स्तर पर वैचारिक एकरूपता और चेतना फैलाने के लिए मजबूत किया, इसने स्वायत्त दलित राजनीति के लिए एक ठोस आधार बनाया. चुनावी राजनीति में बसपा की शुरुआती बढ़त बामसेफ के काम से हुई थी. हालांकि, भले ही बामसेफ ने व्यक्तिगत करिश्मे से मुक्त एक संस्थागत नेतृत्व का निर्माण करने का लक्ष्य रखा, संगठन अप्रत्याशित रूप से व्यक्तिगत करिश्मे और नायक पूजा का शिकार बन गया. 1985 में, कांशीराम ने बामसेफ को एक छाया संगठन में बदलने का फैसला किया. बामसेफ अलग-अलग हिस्सों में बंट गया.
बामसेफ के अधिकांश कार्यकर्ता और सदस्य कांशीराम के प्रभाव में थे, जिसने उन्हें बामसेफ को बसपा के लिए एक छाया संगठन में बदलने में मदद की, जो बाद में पार्टी के लिए भौतिक संसाधनों को व्यवस्थित करने के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत बन गया. 1987 में खापर्डे और टी.एस. झल्ली बामसेफ के दो प्रमुख नेताओं ने शेष समर्थकों और सदस्यों के साथ अपना स्वयं का बामसेफ बनाया. बसपा कांशीराम के नेतृत्व में उत्तर भारत में दलितों के एक प्रमुख राजनीतिक दल के रूप में विकसित हुई.
महाराष्ट्र में, विशेष रूप से विदर्भ और मराठवाड़ा क्षेत्रों में, बसपा का काफी प्रभाव रहा है, जहां 2009 के लोकसभा चुनावों में पार्टी को क्रमशः 11.4 प्रतिशत और 6.1 प्रतिशत वोट शेयर प्राप्त हुए थे. हालांकि, उत्तर प्रदेश में इसका आधार होने और व्यक्तिवादी नेतृत्व की संरचना वाला एक संगठन होने के कारण, महाराष्ट्र और अन्य राज्यों में बसपा का कोई लोकप्रिय या महत्वपूर्ण दलित नेतृत्व नहीं रहा है. पार्टी में मजबूत स्थानीय और राज्य-स्तरीय दलित नेतृत्व की अनुपस्थिति के कारण इसके प्रभाव में गिरावट आई, जहां एक समय में इसका मजबूत समर्थन हुआ करता था. उदाहरण के लिए, मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में बसपा के प्रभाव में काफी गिरावट आई है. साथ ही, अन्य राज्यों में बसपा की लोकप्रियता का सीधा संबंध यूपी में उसके मुख्य नेतृत्व के प्रदर्शन से है.
यद्यपि अपने कैडर के माध्यम से बसपा अन्य दलित दलों की तुलना में संरचनात्मक रूप से अधिक मजबूत है, दलितों, आदिवासियों, ओबीसी और मुसलमानों से संबंधित अधिकांश मुद्दों में पार्टी की भागीदारी हाल के दिनों में नगण्य और अप्रभावी रही है. यूपी में चंद्रशेखर आजाद की भीम आर्मी के उदय को इस संदर्भ में समझा जा सकता है जहां चंद्रशेखर की सक्रियता दलित समुदायों के सामाजिक मुद्दों जैसे जाति अत्याचार, हिंसा, भेदभाव आदि के प्रति बसपा की निष्क्रियता के कारण पैदा हुए शून्य को पूरा करती है. दिलचस्प बात यह है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में भीम आर्मी का उदय हमें महाराष्ट्र में दलित पैंथर के शुरुआती वर्षों की याद दिलाता है, जहां यह दलितों के बीच तेजी से फैल गया था, फिर भी, नेतृत्व की अनौपचारिक संरचना के कारण, यह भूमिगत हो गया.
लोगों के आंदोलनों में करिश्माई नेतृत्व का अत्यधिक उत्सव और महत्व प्रतिभागियों के रूप में जनता की भूमिका को रद्द कर देता है और उन्हें केवल एजेंसी-रहित अनुयायियों तक सीमित कर देता है. अंबेडकर के बाद का दलित आंदोलन करिश्माई नेतृत्व के अत्यधिक जोर देने वाले पहलू का शिकार है. अम्बेडकर राजनीति और सामाजिक आंदोलनों में हीरो व्यक्तित्वों के उत्सव के आलोचक थे. इस संबंध में एक सुविचारित संस्थागत करिश्माई नेतृत्व बनाने के लिए, अम्बेडकर ने जुलाई 1956 में ‘राजनीति में प्रवेश के लिए प्रशिक्षण स्कूल’ खोलने का कार्यभार संभाला. हालाँकि, अम्बेडकर की मृत्यु के बाद, यह स्कूल बंद हो गया और आज तक अंबेडकर के बाद के दलित आंदोलन के इतिहास में इसकी बस एक मूक विशेषता बनी हुई है. अम्बेडकर के पास संगठनात्मक लोकतंत्र और व्यक्तियों के साथ संतुलित ‘सचेत अनुशासित’ सबाल्टर्न नेतृत्व बनाने की दृष्टि थी. दुख की बात है कि इतनी लंबी यात्रा के बाद भी, दलित राजनीति और आंदोलन अभी भी नेता के करिश्मे के अत्यधिक उत्सव के इर्द-गिर्द घूमते हैं. समकालीन दलित राजनीति और विमर्श में संगठनात्मक नेतृत्व की आवश्यकता के लिए न तो जगह बहुत कम है या फिर है ही नहीं.
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राहुल सोंनपिंपले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में समाजशास्त्र में पीएचडी उम्मीदवार हैं। उनका शोध दलित आंदोलनों और नेतृत्व पर केंद्रित है। वह जेएनयू में ‘बिरसा अंबेडकर फुले छात्र संघ’ (BAPSA) के सक्रिय सदस्य भी हैं। उन्होंने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, मुंबई से दलित और जनजातीय सामाजिक कार्य में मास्टर डिग्री हासिल की है।
अनुवाद: गुरिंदर आज़ाद
यह आलेख मूल रूप से अंग्रेजी भाषा में है जिसे अंग्रेजी भाषी Round Table India पर यहाँ क्लिक करके पढ़ा जा सकता है.
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