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लेनिन मौदूदी (Lenin Maududi)

सबसे पहले मैं आपको अपना एक किस्सा सुनाता हूँ। बात बहुत पुरानी नहीं है, हुआ यूँ कि मुझे सरकारी स्कूल में पहली बार बच्चों को सामाजिक विज्ञान पढ़ाने का मौक़ा मिला था। शायद वह 8th-D की क्लास थी, विषय था ‘हाशिये का समाज’। ब्लैक बोर्ड पर मैंने चॉक से एक शब्द लिखा ‘मुसलमान’ और बच्चों से कहा कि इस शब्द को सुनते या पढ़ते हुए जो भी दूसरा शब्द तुम्हारे दिमाग़ में आता हो, उसे बताओ। बच्चे पहले बोलने से कतरा रहे थे फिर धीरे-धीरे उन्होंने बोलना शुरू किया आतंकवादी, पाकिस्तानी, ग़द्दार, देशद्रोही, दाढ़ी, बुरक़ा, मदरसा, मौलवी, कटुआ, न जाने क्या-क्या वह बोलते गए और मैं एक-एक शब्द को ब्लैकबोर्ड पर लिखता गया। फिर मैंने जानना चाहा कि क्लास में कितने मुस्लिम बच्चें हैं! 7-8 बच्चों ने हाथ उठाया। उन सभी बच्चों को मैंने क्लास के सामने खड़ा कर दिया फिर मैं ब्लैकबोर्ड पर वापस गया और एक-एक शब्द के ऊपर उंगली रख कर क्लास से पूछा, किस-किस को लगता है कि तुम्हारे सामने जो ये तुम्हारे 7-8 मुसलमान साथी खड़े हैं वह सब आतंकवादी, ग़द्दार, देशद्रोही आदि हैं? किसी बच्चे ने भी हाँ में जवाब नहीं दिया। फिर मैंने सवाल किया तब वह कौन से मुस्लिम हैं जिन्हें तुम आतंकवादी, ग़द्दार, देशद्रोही बता रहे थे? बच्चों ने जवाब दिया कि उन्होंने T.V. और फ़िल्मों में देखा है, किसी से सुना है।

आपने देखा कि कैसे प्रोपेगंडा का विध्वंसकारी प्रभाव होता है! बच्चों के दिमाग़ में यह बात भर दी गई थी कि कोई एक काल्पनिक दुश्मन है जो उनसे, इस देश से नफ़रत करता है। यहाँ इस बात को समझते चलें कि यहूदियों के नरसंहार से पहले उनके ख़िलाफ़ ऐसे ही झूठे प्रोपोगंडा चलाए गए थे। उनके ख़िलाफ़ तरह-तरह के मिथ गढ़े गए। मीडिया द्वारा आज भारत में मुसलमानों के ख़िलाफ़ क्या ऐसे ही मिथ नही गढ़े जा रहे हैं? क्या मुसलमानों के ख़िलाफ़ हो रही हिंसा को ‘किंतु’, ‘परंतु’, ‘पर’, ‘अगर’, ‘मगर’ और ‘लेकिन’ आदि शब्दों के साथ न्यायसंगत साबित करने की कोशिश नहीं की जा रही है! अंततः इन मिथकों के दम पर पसमांदा मुसलमानों को और अधिक हाशिये पर धकेला जाता है. यहूदियों के ख़िलाफ़ हिंसा को भी इस आधार पर भी सही ठहराया गया था कि यहूदी नबी, प्रोफेट (ईसाई मान्यताओं के अनुसार ईसा यानी जीसस को यहूदियों ने सूली पर चढ़ाया था) के क़ातिल हैं। हिटलर जो उनके साथ कर रहा है वह उनके कर्मों का फल है। यहूदियों के ख़िलाफ़ ऐसे मिथ सिर्फ़ जर्मनी में नहीं बल्कि पूरे यूरोप में गढ़े जा रहे थे और 1870 से 1930 तक ऐसे ढेरों मिथ गढ़े गए। जिसका परिणाम होलोकास्ट (यहूदियों के नरसंहार) के रूप में दुनिया के सामने आया। अगर हिटलर किसी अन्य देश (फ्रांस, ब्रिटेन आदि) पर हमला नहीं करता और अपने देश के एक-एक यहूदियों को मार भी देता तो इस से दुनिया को कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला था।

फ़िल्म ‘Jojo Rabbit‘ अंधभक्त बनाने की कहानी है। कैसे सरकार लोगों को अंधभक्त बनाती है! कैसे वह अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए काल्पनिक दुश्मन का निर्माण करती है! कैसे एक धर्म, एक समुदाय के खिलाफ झूठे मिथकों का निर्माण किया जाता है! लोगों की पूर्वभावनाओं को कैसे मज़बूत किया जाता है, कैसे स्टीरियोटाइपिंग को बढ़ावा दिया जाता है! इस फ़िल्म को Taika Waititi ने डायरेक्ट किया है। इसे Anti-hate satire के रूप में बनाया गया है। मतलब नफ़रत और उससे उपजी हिंसा को व्यंग के ज़रिए कैसे समझाया जा सकता है! आज के वक़्त में जहाँ असहिष्णुता बढ़ती जा रही है, सरकारें अपने विरुद्ध उठ रही आवाज़ों का दमन कर रही हैं, जहाँ प्रचार माध्यमों के ज़रिए ज़हर घोला जा रहा है वहाँ ऐसे वक्त में जोजो रैबिट जैसी फिल्मों की प्रासंगिकता बहुत बढ़ जाती है। आगे बढ़ने से पहले आप यह जान लें कि अब कई स्पोइलर (spoiler) आएंगे।

बहरहाल, कहानी पर आते हैं. जोजो रैबिट (Roman Griffin Davis) 10 साल का एक लड़का है। यह तानाशाह के शासनकाल (Totalitarian regime) में पैदा हुआ है। इसलिए जोजो के लिए स्वतंत्रता, समानता, अधिकार जैसे शब्द कोई मायने नहीं रखते क्योंकि उसने कभी इन शब्दों का अनुभव ही नही किया है। जोजो सरकार द्वारा स्थापित हर झूठ को सत्य मानता है। सरकार न सिर्फ़ डण्डे के ज़ोर से अपनी बात मनवाती है बल्कि वह व्यक्तियों के विचारों के परिवर्तन से भी अपने आदेशों का पालन करना सिखाती है। आदेशों को मानने का प्रशिक्षण स्कूलों से दिया जाता है। स्कूल किसी भी विचारधारा को फैलाने के सबसे बड़े माध्यम हैं। हिटलर ने स्कूल के पाठ्यक्रम को अपनी विचारधारा के अनुरूप बदलवा दिया था। वह बच्चों के सैन्य प्रशिक्षण के पक्ष में था इसके लिए वह बच्चों और युवाओं का कैम्प लगवाता था। जर्मन सेना की किसी भी कार्यवाही पर सवाल करना देशद्रोह था। सेना का महिमामण्डन किया जाता था ताकि जर्मन सेना द्वारा किए जा रहे अत्याचार किसी को दिखाई न दे। बच्चों के अंदर अंधराष्ट्रवाद को फैलाया जाता था। इसी तरह जोजो भी ख़ुद को हिटलर का सबसे वफ़ादार सिपाही बनाना चाहता है। जो शांति की जगह युद्ध को पसंद करता है पर जब उसे कैम्प में एक रैबिट (ख़रगोश) मारने को दिया जाता है तो वह ख़रगोश को मारने की जगह उसे बचाने की कोशिश करता है। इसी वजह से बाक़ी के साथी उसे ‘जोजो रैबिट’ के नाम से चिढ़ाने लगते हैं। ख़रगोश को न मार पाना जोजो के अंदर की मासूमियत को दिखाता है जिसे जोजो ने नाज़ी प्रोपेगंडा द्वारा निर्मित संस्कृति में छुपा रखा है। जोजो को पता है कि रैबिट को बचाना सही था पर वह ख़ुद को नाज़ी चश्मे से देखता है इसलिए वह बार बार दुविधा में फंस जाता है। एक अंधभक्त अपने निर्णयों को कैसे देखता होगा! कैसे तय करता होगा कि उसके द्वारा किया गया कार्य सही है! क्या वह अपने आराध्य को याद करता होगा और सोचता होगा कि मेरी जगह वह होते तो क्या करते या वह मुझसे क्या करने को कहते! जोजो भी इसी प्रकार एडोल्फ को हर कठिन परिस्थितियों में याद करता है ताकि एडोल्फ उसको राह दिखा सके। जोजो हिटलर से इतना प्रभावित है कि उसका काल्पनिक दोस्त भी एडोल्फ हिटलर ही है। 10 साल के बच्चे के दिमाग से जो हिटलर बनेगा वह वास्तविक हिटलर जैसा तो होगा नहीं। एडोल्फ दरअसल उस बच्चे के मन में बनी हिटलर की छवि है, नाज़ी विचारधारा है जो उस 10 साल के बच्चे के साथ-साथ रहती है। जोजो दुःखी है कि वह ख़रगोश को नहीं मार पाया और सभी उसे जोजो रैबिट के रूप में चिढ़ा रहे हैं। ऐसे में जोजो का काल्पनिक दोस्त एडोल्फ आता है।

एडोल्फ: क्या हुआ? तुम क्यों दुःखी हो?
जोजो: वह चाहते थे कि मैं रैबिट को मार दूँ। मुझे माफ़ कर दो मैं यह न कर सका!
एडोल्फ: तुम दुःखी मत हो, मैं इसकी परवाह नहीं करता।
जोजो: पर वह सब मुझे रैबिट की तरह डरपोक बोल कर चिढ़ा रहे हैं।
एडोल्फ: जिसको जो कहना है वह कहेगा। मुझे देखो, मेरे बारे में लोग क्या क्या बुरी बातें कहते हैं! मैं पागल हूँ, साइको हूँ, मैं सभी को मरवा दूंगा। लेकिन मुझे इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता। तुम्हें लगता है कि रैबिट डरपोक है! मैं तुम्हें एक राज़ की बात बताता हूँ रैबिट डरपोक नहीं है। वह अपने परिवार के लिए, अपने देश के लिए रोज़ ख़तरे उठाता है ताकि वह कुछ गाजर ला सके।

एडोल्फ़ जो भी अपने यानी हिटलर के बारे में बोलता है हम जानते हैं वह सच है पर एक अंधभक्त के लिए वह बस कुछ लोगों का विरोध/जलन है। जोजो एडोल्फ की बातों से संतुष्ट हो जाता है जैसे कोई भी अंधभक्त अपने नेता की बातें सुन कर संतुष्ट हो जाता है।

जोजो की माँ Rosie (Scarlett Johansson) न तो हिटलर को पसंद करती है और न ही युद्ध को। उसे पता है कि हिटलर ने उसके देश को बर्बाद कर दिया है पर उसका बेटा एक मासूम अंधभक्त है। ऐसे माहौल में वह अपने बेटे को खुल कर समझा नहीं सकती।

रोज़ी और जोजो डिनर पर बैठे हैं और उनके बीच संवाद होता है:

रोज़ी: तुम ख़ुश क्यों नही रह सकते?
जोजो: तुम अपने देश से नफ़रत करती हो।
रोज़ी: मैं अपने देश से प्यार करती हूं। वह युद्ध है जिससे मैं नफ़रत करती हूं। युद्ध बेवक़ूफ़ी भरा एक बक़वास विचार है। जल्द ही यहां शांति होगी! जोजो गुस्से से भर जाता है: हम अपने दुश्मन को कुचल देंगे और उन्हें मिट्टी में मिला देंगे और जब वह बर्बाद हों जाएंगे तो हम उनके दिमाग़ को टॉयलेट की तरह इस्तेमाल करेंगे।

इतना कह कर वह ग़ुस्से में अपने छोटे से हाथ को ज़ोर से खाने की मेज़ पर मारता है। जोजो को उसकी मां ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ की कोई सदस्य नज़र आती है।

यहाँ यह याद दिलाना आवश्यक है कि जब दिल्ली विश्वविद्यालय की एक लड़की ‘गुरमेहर कौर’ ने जब यह कह दिया था कि, “पाकिस्तान ने उसके पिता (कैप्टेन मनदीप सिंह जो 1999 में ऑपरेशन रक्षक के दौरान शहीद हो गए थे) की हत्या नहीं की, युद्ध ने उनको मारा है।” तब किस तरह से अंधभक्तों का रेला उस लड़की के पीछे पड़ गया था! अब आप समझ पा रहे होंगे कि यह अंधभक्त जोजो की तरह ही तर्क करते हैं। इनके अंदर भी 10 साल के बच्चे से ज़्यादा का IQ नहीं होता। रोज़ी अपने बेटे को राजनीति से दूर रखना चाहती है। वह जोजो से कहती है – “तुम बहुत तेज़ी से बड़े हो रहे हो। 10 साल के बच्चों को युद्ध सेलिब्रेट नहीं करने चाहिए, राजनीति पर बातें नहीं करनी चाहिए। तुम्हे पेड़ों पर चढ़ना चाहिए और फिर उन पेड़ों से गिरना चाहिए। ज़िन्दगी एक तोहफ़ा है और हमें इसे सेलिब्रेट करना चाहिए। हमें नाचना चाहिए ताकि ईश्वर को बता सकें कि हम जीवित हैं इसलिए आपके एहसानमंद हैं।” इतना कहते हुए वह नाचने लगती है। नाचते हुए हमें उसके जूते नज़र आते हैं। हमें जूतों का महत्व थोड़ी देर बाद पता चलता है जब चौक पर कुछ लोगों को देशद्रोह के आरोप में लटका दिया जाता है। हमें उनके चेहरे नज़र नहीं आते, नज़र आते हैं तो बस उनके जूते। जूते दुर्घटनाओं, भगदड़ और त्रासदी की निशानी के रूप में शेष बच जाते हैं। जहाज़ डूब जाने के बाद यही जूते किनारे तक तैर के आते हैं और अपने मालिक के होने का सबूत देते हैं। गैस चैंबर में मारे गए यहूदियों की निशानी के रूप में उनके जूतों को संग्रहालयों में रखा गया। वियतनाम युद्ध के विरोध में यह जूते नज़र आते हैं।

रोज़ी ने अपने घर में एक यहूदी लड़की एल्सा (Elsa) को छुपा रखा है, जिसके माता-पिता को हिटलर पहले ही मरवा चुका है। रोज़ी इस राज़ को अपने बेटे से छुपाती है क्योंकि अगर उसके बेटे को कुछ पता चला तो सभी को पता चल जाएगा (वह बोल देगा)। इससे उन दोनों की सुरक्षा ख़तरे में पड़ जाएगी। रोज़ी उस यहूदी लड़की को शांत रहने को कहती है ताकि उसकी मौजूदगी का पता उसके बेटे को न चल पाए।

रोज़ी: मैं पहले ही अपने पति और बेटी खो चुकी हूँ। अब मैं और कुछ भी खोना नहीं चाहती।
एल्सा: मेरे पास तो खोने के लिए कुछ बचा ही नहीं है।
रोज़ी: लेकिन तुम्हें जीना होगा, वह नहीं चाहते तुम ज़िंदा रहो पर तुम्हारा ज़िंदा रहना उनकी हार होगी और तुम ज़िंदा रहोगी। तुमने अगर ज़िंदा रहने की तमन्ना छोड़ दी तो वह जीत जाएंगे।

रोज़ी और उसका पति जर्मनी के अंदर बची हुई मानवता के सूचक हैं जो अपनी ज़िंदगी दांव पर लगा कर भी इंसानियत को बचाना चाहते हैं।

जोजो नाज़ी के युवा कैम्प में जर्मन सर्वोच्चता, आर्य नस्ल की शुद्धता की ट्रेनिंग ले रहा होता है। उसे सिखाया जाता है कि उसकी ज़िन्दगी का मक़सद ही आर्य नस्ल और हिटलर की सेवा करना है। लड़के युद्ध में हिस्सा ले कर सेवा करेंगे और लड़कियां बच्चे पैदा कर के, घर का कामकाज सीख कर, ज़ख्मी सिपाहियों की देखभाल करते हुए देश की सेवा करेंगी। दोनों जेंडर का काम बंटा हुआ है। नाज़ियों के इस युवा कैम्प को कैप्टन क्लेनजेनडोर्फ (Captain Klenzendorf) चलाता है। वह समलैंगिक है पर समलैंगिकता तो अपराध है। ऐसा अपराध जिसकी सज़ा मौत है। इसलिए वह अपनी पहचान छुपा कर रखता है। वह अपनी इच्छा से नाज़ी नहीं बना है बल्कि नाज़ी बनना उसकी मजबूरी है ताकि वह देश के लिए अपनी वफ़ादारी साबित कर सके। दरअसल यह यूथ कैम्प अंधभक्त बनाने की एक फैक्ट्री है। यहां बच्चों को किताबों को पढ़ाना नही बल्कि जलाना सिखाया जाता है। हम जानते हैं कि नाज़ी-फ़ासीवादियों ने किताबों को सार्वजनिक रूप से जलाने का चलन शुरू किया था। इसके ऊपर एक कालजयी फ़िल्म ‘फार्नहीट 451 (Fahrenheit 451) बनी है 2018 में, जिसे एक ईरानी डायरेक्टर रमीन बहरानी (Ramin Bahrani) ने बनाया है। आख़िर क्यों कोई भी तानाशाह सरकार किताबों पर प्रतिबंध लगाती है! किताबें क्यों जलाई जाती हैं, इसे समझने के लिए ख़ुद से पूछिए कि किताबों से हमें क्या मिलता है! ज्ञान, तर्क करने की क्षमता, इतिहास और भविष्य को देखने की क्षमता। फिर कितबा जलाने का अर्थ यह हुआ कि नफ़रत ने आपके अंदर की तर्क क्षमता को खत्म कर दिया है। अब आपसे कुछ भी कराया जा सकता है। मशहूर जर्मन कवि और लेखक Johann Heinrich लिखते हैं, “जहाँ किताबों को जलाया जाता है, वहाँ अंत मे मनुष्यों को भी जलाया जाएगा।” (Where they burn books, they will, in the end, burn human beings too.)। इस कैम्प में यहूदियों के बारे में मिथक गढ़े जाते हैं और स्टीरियोटाइप को मजबूत किया जाता है। बच्चों को समझाया जाता है कि देश में जो भी ग़लत हो रहा है उसके पीछे यहूदी हैं। जैसे भारतीय मीडिया भारत में हो रही हर समस्या को मुसलमानों से जोड़ देती है। उनको बताया जाता है कि यहूदी लोग बच्चों और सैनिकों को खा जाते हैं। न सिर्फ यहूदियों के लिए अमानवीय उपमाओं का प्रयोग किया जाता है बल्कि उनके दिमाग़ में यह भी भर दिया जाता है कि यहूदी इंसान होते ही नहीं हैं बल्कि कोई राक्षस या पिशाच होते हैं। जोजो का मासूम मन कैप्टन से एक सवाल करता है कि वह आख़िर यहूदियों को पहचानेगा कैसे? यहूदी तो उन्ही की तरह दिखते हैं। कैप्टन कहता है कि अगर यहूदी अपने सर पर छोटी वाली टोपी न रखें तो उनको पहचानना मुश्किल है। यह सीन देखते हुए क्रांतिवीर फ़िल्म का नाना पाटेकर वाला डायलॉग याद आ जाता है ‘यह ले मुसलमान का ख़ून, यह हिन्दू का ख़ून…. अब बता इसमें मुसलमान का खून कौन सा है? और हिन्दू का खून कौन सा? जब ऊपर वाले ने बनाने में फ़र्क़ नहीं किया तो तू कौन होता है फ़र्क़ करने वाला!”

जोजो कैम्प से घर आता है, घर में उसका सामना यहूदी लड़की एल्सा से होता है। जोजो घबरा जाता है, पहले वह इसकी सूचना नाज़ी सैनिकों को देना चाहता है फिर वह सोचता है कि उसने अगर बता दिया तो उसकी माँ को सज़ा हो जाएगी। पहले तो जोजो और उसका दोस्त एडोल्फ सोचते हैं कि घर को आग लगा देता हूँ और आरोप विंस्टन चर्चिल पर लगा देंगे फिर जोजो दूसरा तरीका सोचता है ‘Reverse psychology’ का। यहूदी लड़की उसके दिमाग पर नियंत्रण कर रही है तो उसे उसके दिमाग़ पर नियंत्रण कर के यहूदियों की सारी जानकारी इकट्ठा करके उस पर किताब लिख देनी चाहिए ताकि उसकी किताब से यहूदियों को पहचानना आसान हो जाए। जोजो जिस नफ़रत से “Jew” (यहूदी) बोलता है वह भारतीय संदर्भ में ‘मियां’, ‘कटुआ’, ‘मलेक्ष’ के रूप में सुनाई देता है। अब यहाँ से जोजो के अंधभक्त वाले सवाल शुरू होते हैं और एल्सा का जवाब जो इस फ़िल्म का सबसे महत्वपूर्ण और मज़बूत पक्ष है।

जोजो: यहूदियों के बारे में सब कुछ जानना है जैसे वह कहाँ रहते हैं? क्या खाते हैं? कैसे सोते हैं? यहूदियों की रानी अण्डे कहाँ देती है?

एल्सा: यहूदी भी तुम्हारी तरह इंसान होते हैं।
जोजो: यह मज़ाक़ का वक़्त नहीं है। मुझे चित्र बना कर दिखाओ कि यहूदी कहाँ रहते हैं!
एल्सा: (जोजो के दिमाग़ का चित्र बनाती है) यहूदी नाज़ियों के दिमाग़ में रहते हैं।

जोजो का ‘विश्वास तंत्र’ इस बात को मानने के लिए तैयार ही नहीं होता कि उसके सामने खड़ी लड़की उसके जैसी ही एक इंसान है। जैसे सवर्णों को दलित अपने जैसे इंसान नज़र नहीं आते, जैसे गोरों को काले अफ़्रीक़ी अपने जैसे इंसान नहीं लगते। शोषकों के दिमाग़ को इस तरह प्रशिक्षित किया जाता है कि वह ज़ुल्म/अत्याचार कर सकें और उन्हें पछतावा भी न हो। दलित, अछूत नामक वर्ग क्या सवर्णों के दिमाग़ में नहीं रहता! क्या इनको नीच मानने का आधार अमूर्त-काल्पनिक नहीं है? किसी को जन्म एवं रंग के आधार पर नीच मानना कैसे सम्भव हो पाता है? जोजो फिर कहता है कि यहूदियों को तो गंदगी में रहना पसंद है, उन्हें बदसूरती पसंद है। यहूदियों के बारे में यह तथ्य उसने अपने स्कूल से सीखा है। एल्सा उसका जवाब नहीं देती, वह जानती है कि जोजो एक 10 साल का लड़का है जो अभी अंधभक्त है, उसे फ़ौरन समझाया नहीं जा सकता। पर यही आरोप भारत के मुसलमानों पर भी लगाया जाता है। आम जर्मन मकान मालिक यहूदियों को अपना मकान किराये पर नहीं देते थे। सुरक्षा की दृष्टि से भी यहूदी अपनी बस्तियों में रहना पसंद करते थे। यहूदियों की बड़ी आबादी छोटे से क्षेत्र में सीमित होती गई जिसे “घेटो” कहा जाता था। एक साथ बहुत से लोग जब एक जगह रहने लगेंगे तो वहाँ साफ़-सफाई की कमी तो हो ही जाएगी।

यही वजह भारत की मुस्लिम बस्तियों में भी नज़र आएगी, जहाँ आमतौर पर पसमांदा मुसलमान रहते हैं। महाराष्ट्र की सबसे बड़ी मुस्लिम बस्ती ‘मुंबरा’ का निर्माण 92 के दंगों के बाद हुआ था। भारत में हर दंगों के बाद एक मलिन बस्ती का निर्माण हो जाता है।

फ़िल्म में नफ़रत की जगह प्यार के महत्व को बहुत ख़ूबसूरती से समझाया गया है। एल्सा जोजो को अपने मंगेतर Nathan के बारे में बताती है। इस बात पर जोजो चिढ़ जाता है।

एल्सा: शायद तुम्हारी कोई गर्लफ्रेंड नहीं है इसीलिए तुम इतना जल रहे हो।
जो जो: मेरे पास गर्लफ्रेंड के लिए टाइम नहीं है।
एल्सा: एक दिन तुम टाइम निकालोगे, तब दिमाग़ नहीं सिर्फ दिल चलेगा… तुम किसी से मिलोगे जिसकी बाहों में दिन का चढ़ना, शाम का ढलना सब ख़ूबसूरत लगेगा… यही प्यार है।
जो जो : बक़वास!

[फ़िल्म के अगले हिस्से में रोज़ी जोजो को झील पर घुमाने ले जाती है।]

रोज़ी: कभी यहाँ प्रेमी जोड़ों की भीड़ लगी रहती थी। सभी नाचते थे गाते थे
जोजो: अभी रोमांस का वक़्त नहीं है, हम युध्द में हैं।
रोज़ी: प्यार के लिए हमेशा वक़्त होता है। प्यार दुनिया की सबसे मज़बूत चीज़ होती है।
जोजो: मुझे लगता है, तुम जानोगी कि इस पृथ्वी पर सबसे मज़बूत चीज़ धातु है, उसके बाद डाइनामाइट का नंबर आता है, और उसके बाद मसल्स (यानि ताकत) का।

जोजो के दिमाग़ को नाज़ी प्रोपोगंडे से निर्मित नफ़रत ने इस तरह दूषित कर दिया था कि वह हर झूठ को, हर बेवक़ूफ़ी को पूरी शिद्दत से न केवल मानता है बल्कि निभाता भी है। उसे पता नहीं है कि वह क्या बोल रहा है पर उसे विरोध करना है! क्योंकि उसकी माँ जो बातें कह रही है वह उसके नाज़ी दिमाग़ के खाँचे में फिट नहीं हो रही है। यह ठीक किसी भी दूसरे अंधभक्त से तर्क करने जैसा अनुभव है। अंधभक्तों से आप तर्क करें वह फौरन आपको अपने कुतर्कों से जवाब देंगे। उस वक़्त कहाँ थे? तब क्यों नही बोले? 70 साल से चुप क्यों थे? कोई भी अंधभक्त जोजो की तरह ही कहता है ‘जर्मन दिमाग किसी का ग़ुलाम नहीं बनेगा’ मतलब तर्क नहीं करेगा। तर्क करने से रोकने के लिए ऐसे नारों और जुमलों का निर्माण किया जाता है। धीरे-धीरे जोजो को एल्सा अच्छी लगने लगती है। वह उसे एक सामान्य सी लड़की/इंसान नज़र आने लगती है पर एक सच्चा नाज़ी तो यहूदियों को इंसान मानता ही नहीं है। जोजो फिर दुविधा में फंस जाता है। ऐसे में फिर उसका काल्पनिक दोस्त एडोल्फ आता है। जो उसको आर्य नस्ल की, एडोल्फ हिटलर की और नाज़ी पार्टी की वफ़ादारी की याद दिलाता है। कोई भी अंधभक्त जब तर्क करने लगता है तो उसके अंदर भी यही सब घटित होता है। यही वजह है कि अंधभक्तों पर तर्क और तथ्य काम नहीं करते। जोजो जिस युद्ध को लड़ने की कल्पना करता था। वह युद्ध जब उसके सामने घटित होता है तब वह युद्ध की वास्तविकता उसको अपनी रोमांचित कल्पना से बहुत अलग दिखाई देती है। जैसे हम एयरकंडीशनर में बैठे टी.वी. डिबेट में पड़ोसी देश से परमाणु युद्ध के लिए भी तैयार हो जाते हैं और दीपावली में 2 दिन प्रदूषण हो जाए है तो हम सीना पीटने लगते हैं कि सांस नहीं ली जा रही! कोई कुछ करे, आकर बचाए इन को। जोजो भी ऐसा ही डरपोक लड़का है जो नाज़ियों द्वारा फैलाए गए प्रोपोगेंडा से रोमांचित रहता है और उसे सच मानता है। वह हिटलर की भक्ति में इतना अंधा है कि उसे कल्पना और वास्तविकता में अंतर दिखाई देता है पर समझ नहीं आता। देशद्रोह के मामले में जब उसकी माँ को सूली पर लटका दिया जाता है। तब वह दुःख और पीड़ा से भर जाता है पर अब भी वह अपनी माँ की मौत का कारण उस यहूदी लड़की एल्सा को मानता है और उसके सीने में चाकू घोप देता है। उसे इस बात को समझने में वक़्त लगता है कि हिटलर ने उसके साथ, उसके देश के साथ एक भद्दा मज़ाक़ किया है। जिसकी कीमत उसके साथ करोड़ों लोगों ने चुकाई है। फिर जोजो अपने काल्पनिक दोस्त एडोल्फ को ‘F**k off Hitler!’ बोल कर अपनी ज़िंदगी से दफ़ा कर देता है।

जोजो रैबिट फ़िल्म के साथ एक बहस भी चल रही है कि क्या त्रासदी पर कॉमेडी बनाई जा सकती है। मेरा जवाब है आपको किसी भी रचना को इस तरह देखना होगा कि उसका End result क्या है! क्या जोजो रैबिट हम को सिर्फ़ हंसाती है या वह हंसाते हुए हम को विषय की गंभीरता से परिचित भी करवाती है! फ़िल्म हमें 10 साल के बच्चे के ज़रिए हमें नाज़ी विचारधारा को समझने और समझाने में मदद करती है। हम यह समझ पाने में कामयाब होते हैं कि कैसे नफ़रत भरा प्रोपेगैंडा जोजो जैसे मासूम दिल को भी दूषित कर सकता है। फ़िल्म हमें समझाती है कि जब हम किसी विचारधारा के वर्चस्व में होते हैं तब वह विचारधारा हमारे लिए हमारा ‘विश्वास तंत्र’ बन जाता है। हम कुछ भी ऐसा न देखना चाहते हैं और न सुनना जो हमें अपने विश्वास तंत्र से अलग नज़र आता है। इसे ही ‘पोस्ट-ट्रुथ’ कहा जाता है। अंधभक्त तर्कों और तथ्यों को इसलिए नकार देते हैं क्योंकि वह तर्क और तथ्य उनके विश्वास, उनकी भवनाओं से मेल नही खाते। हमें ऐसे लोगों के पागलपन को कम करके नहीं आंकना चाहिए, जिन समझदारों ने हिटलर के उदय को मामूली घटना समझा था। उन लोगों ने इतिहास की एक बड़ी त्रासदी को अपने सामने होते देखा। जोजो रैबिट George Carlin के शब्दों में हमें सबक़ देती है कि Never underestimate the power of stupid people in large groups यानि मूर्खो-अंधभक्तों की बड़ी संख्या वाले समूहों की शक्ति को कम करके नहीं आंकना चाहिए।

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लेनिन मौदूदी लेखक हैं एवं  DEMOcracy विडियो चैनल के संचालक हैं, फिल्म समीक्षक हैं और अपने पसमांदा नज़रिये से समाज को देखते-समझते-परखते हैं.

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