डॉ सूर्या बाली “सूरज धुर्वे” (Dr. Suraj Bali ‘Suraj Dhurvey’)
शिक्षा के महत्त्व को सावित्री बाई फुले ने जितनी व्यापकता से समझा उसकी मिसाल उनके पूरे जीवन में उनके द्वारा किये बाकमाल कार्यों से मिलती है. शिक्षा के ऐसे महत्त्व में उनके अपने निजी जीवन शिक्षा के चलते आये ज़बरदस्त परिवर्तन की छाप भी है. ये बात अब उनके समझ में आ चुकी थी कि मनुवाद के आधार पर गिराई गई जातियों की दासता की बेड़ियाँ इसी शिक्षा के औज़ार से काटी जा सकती है। जातियों में बंटे समाज में ब्राह्मण समाज से आते अध्यापकों में इन सभी गुणों की आधारभूत कमी उन्होंने पाई. उन्होंने इस बात को समझा कि अच्छे शिक्षक को दयालु, धैर्यवान, मेहनती, समर्पित और सबसे ज़रूरी मानवतावादी होना चाहिए जो किसी के साथ भेदभाव न करे और बच्चों के जीवन को सकारात्मक दिशा दे सके। वे कहती थीं कि शिक्षित और अनुशासित बच्चे किसी भी समाज का भविष्य होते हैं जो आगे चलकर समाज का नेतृत्व करने में अहम् भूमिका निभाते हैं. इस नाते शिक्षा, विद्यार्थियों और शिक्षकों का बहुत ही अहम् रिश्ता है और समाज निर्माण में इनका मुख्य किरदार होता है।
सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831, नायगांव (जिला सतारा, महाराष्ट्र) में हुआ. वो माली जाति से थीं जिसे पिछड़ा समझा जाता था. इनके पिता का नाम खन्दोजी नैवेसे पाटिल और माता का नाम लक्ष्मी था। ज्योतिराव गोविंदराव फुले यानि ज्योतिबा फुले, जिन्हें बाबा साहेब आंबेडकर सामाजिक क्रांति का जनक कहते थे, से उनका विवाह 1840 में हुआ. तब वह मात्र 9 वर्ष और ज्योतिबा फुले 12 वर्ष के थे. ज्योतिबा उस समय तीसरी कक्षा के छात्र थे जबकि महिलाओं को शिक्षा सामाजिक कारणों से चलन में थी ही नहीं. लेकिन आगे चलकर ज्योतिबा ने उनमें पढ़ाई के प्रति जिज्ञासा देखी और बहुत खुश हुए. उन्होंने सावित्री बाई को पढ़ने के लिए प्रेरित किया. पढ़ाई की शुरुआत घर से ही हुई और ज्योतिबा ने खुद उन्हें पढ़ाया. तीसरी और चौथी कक्षा उन्होंने स्थानीय स्कूल से प्राप्त की जबकि आगे की पढाई अहमदनगर में मिस फरार इंस्टीट्यूशन से पूरी की. पुणे लौटकर उन्होंने महिलाओं को पढ़ाने का बीड़ा उठाया और यूं वे आज समाज में पहली शिक्षिका के रूप में इतिहास में दर्ज होती हैं.
जिस दौर में शिक्षा पर केवल उच्च वर्ग के पुरूषों का ही अधिकार था उस समय में सावित्री बाई फुले पढ़ने लिखने के सपने को साकार कर रही थीं और अपने तरह अन्य वंचित शोषित वर्ग की महिलाओं को शिक्षित करने के सपने देख रही थीं। इस काम में उन्हें ज्योतिबा फुले का पूरा सहयोग मिल रहा था। दलित और महिलाओं के लिए शिक्षा ग्रहण को पाप कहने वाले दौर में ज्योतिबा फुले के सहयोग से सावित्री बाई न केवल खुद पढ़ी लिखी बल्कि ग़रीब और अछूत लड़कियों के लिए स्कूल खोलने की शुरुआत की जो तथाकथित सामंती और ब्राह्मणवादी विचारधारा के लोगों को रास नहीं आया। सावित्री ऐसा न करे इसके लिए उन्होंने भरपूर प्रयास किया लेकिन असफल रहे। फिर वहां के ब्राह्मणों ने उनके ससुर पर दबाव बनाया जिसके कारण उनके ससुर ने उन्हें और उनके पति को घर से बाहर निकाल दिया इसके बाबजूद भी उन्होंने हार नहीं मानी. उन्होंने अपने पति ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर वर्ष 1848 में पुणे के भिडे वाडा में लड़कियों के लिए पहला स्कूल शुरू किया। इस विद्यालय में उस समय केवल नौ लड़कियों ने एडमिशन लिया था और बाद में सावित्रीबाई फुले इस स्कूल की प्रधानाध्यापिका यानि प्राचार्य बनीं थी।.
ब्राह्मणवादी लोग जब फुले दंपति के ऊपर पारिवारिक और सामाजिक दबाव बनाने में नाकाम रहे तो उन्हें मानसिक रूप से तोड़ने के लिए उनके घर गुंडे भेजे गए। लेकिन जोतिबा ने उन गुंडों को भी अपने तर्कों से कायल कर दिया व् उन्हें शिक्षा के महत्त्व को समझाया. जब सावित्री बाई लड़कियों को पढ़ाने के लिए स्कूल जाती थी तब उन्हें गालियाँ और जातिसूचक शब्दों से नवाजा जाता था और ताने सुनाये जाते थे। स्कूल जाते समय ब्राह्मणों द्वारा रास्ते में उन पर कीचड़, गोबर, गंदगी और मैला तक फेंका जाता था। इतनी विषम परिस्थितियाँ भी सावित्री बाई को उनके पथ से डिगा नहीं सकीं। सावित्री बाई अपने थैले में एक साड़ी लेकर जाती थी और स्कूल पहुँच कर गन्दी साड़ी बदल कर सामान्य रूप से लड़कियों को पढ़ाना शुरू कर देती थीं। यह उनके अदम्य साहस और समाज के उनके प्रति लगाव और अपनेपन का अनूठा उदाहरण है।
फुले दंपति की अपनी कोई संतान नहीं थी। अतः उन्होंने एक काशीबाई नामक विधवा ब्राह्मणी से पैदा हुए बच्चे को गोद लेकर उसे पढ़ाया-लिखाया और उसका नाम यशवंत राव रखा। दरअसल काशीबाई विधवा होते हुए भी अपने ही रिश्तेदार से गर्भवती हो गई और उन्हें सामाजिक प्रताड़ना झेलनी पड़ रही थी. सावित्रीबाई से मदद मांगी गई. उन्होंने काशीबाई को संतान को जन्म देने के लिए प्रेरित किया और रोना-धोना छोड़कर अपना ख़याल रखने के लिए प्रेरित किया व् स्वयम उनके साथ खड़ी हुईं. यहीं से ऐसी ही विधवाओं के लिए एक आश्रम खोलने की ज़रुरत महसूस हुई. सावित्री बाई ने ज्योतिबा से इस बारे में बात की तो सावित्री बाई के इस साहसिक उपाय को उन्होंने बहुत सराहा. यूं विधवाओं के लिए आश्रम की शुरुआत हुई.
सावित्रीबाई फुले घटना के पीछे कारणों की पड़ताल करती थीं. उन्होंने पाया कि कम उम्र में विवाह होने के कारण बहुत सी लडकियां कम उम्र में विधवा भी हो जाती थीं ऐसे में उन्हें गर्भावस्था में भी उन्हें घर से निकाल दिया जाता था। सामाजिक बहिष्कार और क्रूरता के चलते गर्भवती महिलायें आत्महत्या या भ्रूण व शिशु की हत्या का मार्ग चुन लेती थीं। विधवा आश्रम ऐसी बेसहारा विधवाओं और गर्भवती माताओं को सहारा देता था.
यहाँ इस बात का ज़िक्र करना भी गैरवाजिब नहीं होगा कि फुले दंपति ने यशवंत राव को मेडिकल की पढ़ाई करवाई और उन्हें एक सफल डॉक्टर के रूप में स्थापित किया. ऐसे माता पिता की सोहबत में यशवंत एक विवेकशील और करुनामई इंसान बने. अपने मातापिता की तरह ही यशवंत भी जीवन भर लोगों की सेवा करते रहे।
सावित्रीबाई केवल महिलाओं और लड़कियों की शिक्षा के लिए ही प्रयास नहीं किये बल्कि वे सभी वंचितों के लिए शिक्षा का अधिकार चाहती थी इसलिए वर्ष 1849 में फुले दंपति ने भारत में वंचित और अछूत समुदायों के लिए भारत में पहला स्कूल शुरू किया, जिन्हें सदियों से शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा गया था।
उन्होंने सायंकालीन स्कूल की शुरुवात की. दरअसल मजदूरी व् किसानी के कारण किसानों और मजदूरों को दिन में पर्याप्त समय नहीं नहीं मिलता और इस कारण वे स्कूल नहीं जा पाते थे और चाहकर भी शिक्षा ग्रहण नहीं सकते थे। उन्होंने हेडमिस्ट्रेस के रूप में काम किया और अन्य 18 स्कूल चलाए।
आज बड़े बड़े आधुनिक सकूलों में भी जो टीचर-पैरेंट मीटिंग की परंपरा है उसकी शुरुआत सावित्रीबाई फुले ने ही की. उन्होंने इन बैठकों का उपयोग माता-पिता को अपनी बेटियों को स्कूल भेजने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए किया क्योंकि अधिकांश माता-पिता भी यही मानते थे कि लड़कियों को शिक्षा प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं है। उन्होंने उन गरीब छात्रों को वित्तीय सहायता की अवधारणा भी शुरू की जो आर्थिक तंगी के कारण स्कूल नहीं आ सके।
आज की सरकारें जो शिक्षा के अधिकार (राइट टू एजूकेशन) और मध्यावधि भोजन (मिड डे मील प्रोग्राम) के कार्यक्रम चलाकर महज़ लोगों को लुभाने का काम करती हैं उसे सावित्रीबाई फुले ने 150 वर्ष पहले ही कर दिखाया था. सरकारें जहाँ अपनी ही घोषित नीतियों में खुद ही अडंगा लगाती है सावित्रीबाई ने समाज के दबे-कुचले वर्गों के उत्थान के लिए उन्हें ज़माने के सितम सह कर किया और वास्तविकता में साकार किया.
28 जनवरी 1853 सावित्रीबाई फुले ने बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की. इतिहास में एक नाम फातिमा शेख का ज़िक्र आता है. कहा जाता है कि उन्होंने सावित्रीबाई का भरपूर साथ दिया और उनके साथ मिलकर महिलाओं और लड़कियों के उत्थान के लिए कई कार्य किये। जब फुले दंपति को घर छोड़ना पड़ा तो फातिमा शेख का घर उनका ठिकाना बना. सावित्री बाई ने फातिमा और उनके भाई उस्मान से बात की और उनके घर में बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की। इसकी पूरी जिम्मेदारी सावित्रीबाई ने संभाली। ‘बालहत्या प्रतिबंधक गृह’ समाज की रूढि़यों से पीडि़त गर्भवती महिलाओं के लिए आश्रय स्थल था। उस समय यह समस्या कितनी व्यापक थी इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके द्वारा चलाये जा रहे बाल हत्या प्रतिबंधक गृह में मात्र 4 सालों में ही 100 से अधिक विधवा महिलाओं ने बच्चों को जन्म दिया।
दलित साक्षरता मिशन की शुरुआत भी सावित्रीबाई फुले के हाथों हुई. और यह कार्य उन्होंने जोतिबा फुले के साथ मिलकर 1854 से 1855 के दौरान किया. उन्होंने समाज से मुखर होकर कहा कि शिक्षा पर सभी मनुष्यों का अधिकार है वो चाहे किसी भी जाति या धर्म से क्यूँ न हो.
एक के बाद एक सामाजिक विषमताओं और रूढ़ियों और अमानवीय मान्यताओं के खिलाफ सावित्रीबाई फुले अपने जीवनसाथी के साथ सामाजिक क्रांति के मिशन की ओर बढ़ती रहीं. यह कहना या लिखना आसान है कि उन्होंने कितने कठोर प्रतिकर्म झेले और वो फिर भी आगे बढ़ती गईं. उनके हस्ताक्षर कार्यों में महिला सेवा मंडल की स्थापना भी है जिसे उन्होंने वर्ष 1852 में महिलाओं के बीच अपने अधिकार, गरिमा और अन्य सामाजिक मुद्दों के बारे में जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से शुरू किया। इसी क्रम में नाई समाज को हड़ताल करने के लिए प्रेरित करना भी रहा. यह कार्य उन्होंने ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर किया. दरअसल, विधवाओं की सूरत को बिगाड़ने ने के लिए नाईयों के हाथों उनका मुंडन करवा दिया जाता था. बदसूरत करने की वजह थी कि पुरुष उनकी और आकर्षित न हो सकें. इस प्रथा को केशवपन कहा जाता था. उन्होंने नाई समुदाय से कहा कि वे ऐसा घिनोना काम न करें. पुणे और बम्बई (अब मुंबई) में नाई समाज ने उनकी सावित्री-जोतिबा की बात को मानते हुए हड़ताल कर दी.
1868 की बात है. सवर्ण महिलायें अछूत कही जाने वाले समाज की महिलाओं को पानी भरने की इजाज़त नहीं देती थीं. एक रोज़ उन्होंने देखा कि अछूत महिलाएं सवर्ण महिलाओं से कुछ पानी देने के लिए गिड़गिड़ा रही थीं. वो पानी के बदले उन्हें उनपर कोई भी अत्याचार करने के लिए रुदन कर रही थीं. कड़ी धूप में बिलखती हुई इन महिलाओं को देखकर सवर्ण महिलाएं हंस रही थीं और उनका उपहास उड़ाने के इरादे से ऊपर पानी फेंक रही थी. सावित्री बाई से यह सहन नहीं हुआ. वे उन अछूत महिलाओं को अपने घर ले आईं और उन्हें कहा कि जितना पानी चाहो भर लो. उन्होंने अपना तालाब उनके लिए खोल दिया.
जहाँ सावित्री बाई ज़मीन पर सक्रिय थीं वहीँ उन्होंने कई किताबों को पढ़ा भी. उनकी पढ़ने और लेखन में बेहद दिलचस्पी थी. 1855 में उन्हें एक ब्रिटिश उन्मूलनवादी टामसन क्लार्कसन की जीवनी पढ़ने का मौका मिला. हालाँकि टामसन क्लार्क्सन खुद एक गोरे यानि अंग्रेज थे लेकिन वे काले यानि ब्लैकस लोगों पर हुए जुल्मों के खिलाफ जमकर लड़े थे. उन्होंने उनके हक में कानून भी बनाए. मानवता का इस दृष्टिकोण ने सावित्रीबाई फुले को पसंद आया जिसकी चर्चा उन्होंने ज्योतिबा फुले से की.
बहुजन आन्दोलन के कार्यकर्ता सावित्रीबाई फुले के एक क्रांतिकारी रूप को भली भांति परिचित हैं. वे मराठी में लिखती थीं. उन्होंने दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए. पहला संग्रह ‘काव्यफुले’ 1854 में प्रकाशित हुआ तो दूसरा ‘बावन्नकशी सुबोधरत्नाकर’ 1891 में प्रकाशित हुआ. इन दोनों संग्रहों में ज्योतिबा फुले शब्दों की छाया में साथ साथ चलते प्रतीत होते हैं. यहाँ उनकी मराठी कविता का हिंदी अनुवाद जिसमें उन्होंने ब्राह्मणवाद की जड़ पर चोट किया है, आप सबके सामने हाज़िर है-
“जाओ जाकर पढ़ो-लिखो, बनो आत्मनिर्भर, बनो मेहनती
काम करो-ज्ञान और धन इकट्ठा करो
ज्ञान के बिना सब खो जाता है, ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते है
इसलिए, खाली ना बैठो,जाओ, जाकर शिक्षा लो
दमितों और त्याग दिए गयों के दुखों का अंत करो
तुम्हारे पास सीखने का सुनहरा मौका है
इसलिए सीखो और जाति के बंधन तोड़ दो
ब्राह्मणों के ग्रंथ जल्दी से जल्दी फेंक दो”
हमारी प्रेरणास्रोत सावित्री बाई पर इतनी बात करते हुए हमें यह जानने की जिज्ञासा होनी चाहिए कि वे अपने निजी जीवन में कैसी थीं. यह इसलिए भी बेहद ज़रूरी है कि आज जिस तरह लोगों ने अपनी इच्छाओं को बाज़ार के हवाले कर दिया है वह कितना आत्मघाती है इसे समझने की ज़रुरत है. मिशन के सामने अडोल रहने की ज़रुरत होती है. सावित्री बाई सादगीपूर्ण जीवन जीती रही और ऐसा ही जीवन ज्योतिबा का भी रहा. फिजूलखर्ची और ब्राह्मणवादी आडम्बरपूर्ण विवाह व्यवस्था जैसे बेकार लेकिन धड़ल्ले से प्रचलित मान्यताओं को उन्होंने दुत्कार कर एक सरल जीवन को चुना. उन्होंने सामूहिक विवाहों को प्रोत्साहित किया. आज, जबकि हम माता सावित्रीबाई का 191वां जन्मदिन मना रहे हैं तो वह इसलिए भी है कि इतने वर्षों के बाद भी उनके सकारात्मक और क्रांतिकारी विचार प्रासंगिक हैं.
एक दंपति किस आदर्श और दोस्ताना तरीके से जीवन गुज़ार सकता है, फुले दंपति इसके अमिट हस्ताक्षर हैं. शायद बाबा साहेब आंबेडकर ने भी यह बात जब कही थी कि एक पति पत्नी को एक दुसरे के दोस्त होना चाहिए उनके मस्तिष्क में जोतिबा-सावित्री का सम्पूर्ण जीवन रहा होगा.
1875 में जोतिबा द्वारा चलाये सत्यशोधक समाज अभियान में सावित्रीबाई फुले कदम से कदम मिलाकर चलीं. ज्योतिबा के साथ उनका सफ़र आखिर एक दिन ठहर गया और वे अकेली पड़ गईं। 28 नवंबर 1890 को लम्बी बीमारी के चलते ज्योतिबा की मृत्यु हो गई थी। ज्योतिबा के निधन के बाद सत्यशोधक समाज की जिम्मेदारी सावित्री बाई के कन्धों पर आ गई लेकिन वे इस कर्त्तव्य को भी निभाने में पूरी तरह सफल रहीं और बड़ी ही कुशलता से सत्य शोधक समाज के लोगों को जोड़े रखा और उसकी गतिविधियों को जारी रखा और अंतिम सांस तक ज्योतिबा के बताये रस्ते पर अडिग होकर चलती रहीं।
कर्मठ सावित्री अपने आखिरी दिनों तक ब्राह्मणवादी रीति रिवाजों, संस्कारों और कर्मकांडों के खिलाफ खड़ी रहीं. वह समय भी आया जब ज्योतिबा फुले उनका साथ और संसार छोड़ गए. उन्हें मुखाग्नि सावित्रीबाई फुले ने दी न कि उनके पुत्र ने.
1896-97 की बात है. महाराष्ट्र के कई इलाकों में प्लेग फैला हुआ था. संसाधनों की कमी के चलते समुचित इलाज नहीं हो पा रहा था. लोग अपनी जान से जा रहे थे. ऐसे में सावित्री बाई फुले अपने डॉक्टर बेटे यशवंत के साथ गाँव गाँव गई और लोगों की सेवा की. इसी दौरान उन्होंने एक प्लेग से ग्रसित बच्चे को गोद में उठाकर ले जा रही थीं जब प्लेग ने उन्हें भी अपनी चपेट में ले लिया. 10 मार्च 1897 को सावित्रीबाई फुले ने आखिरी सांस ली.
सावित्री बाई का जीवन और उनका नेक कार्य आने वाली पीढ़ियों को कई सदियों तक प्रेरित करता रहेगा और शिक्षा के महत्त्व को उजागर करता रहेगा। एक साजिश और विद्द्वेश के तहत उनके कार्यों को आम जन मानस से दूर रखा गया और कभी भी उसे मान्यता नहीं प्रदान की गयी। लेकिन कृतज्ञ समाज देर से ही सही लेकिन दुरुस्त आया और अपनी युग नायिका को उनके महान योगदान के लिए याद करने के लिए राष्ट्रीय शिक्षक दिवस मनाये जाने की परंपरा शुरू की।
सावित्रीबाई के सुधारात्मक कार्यों को वर्षों बाद मान्यता मिली और जब लोगों ने उनके व्यक्तित्व के साथ उनके कृतित्व को भी समझा तब उन्हें दुनिया भर में जाना पहचाना गया। स्थानीय निकायों, राज्य सरकारों और केंद्र सरकारों ने सावित्रीबाई फुले के प्रति आदर और कृतज्ञता व्यक्त करने लिए समय समय पर उनके नाम पर बहुत सारी गतिविधिया करती रही हैं । जैसे वर्ष 1983 में पुणे सिटी कॉरपोरेशन द्वारा उनके सम्मान में एक स्मारक बनाया गया था। इंडिया पोस्ट ने 10 मार्च, 1998 को उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया। 2015 में पुणे विश्वविद्यालय का नाम बदलकर सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय कर दिया गया। सर्च इंजन गूगल ने 3 जनवरी, 2017 को गूगल डूडल के साथ उनकी 186वीं जयंती मनाई।
वर्ष 1848 में एक स्कूल से अपने सफ़र की शुरुवात करने वाली सावित्रीबाई वर्ष 1852 तक तीन स्कूल संचालित करने लगी थीं जिनकी संख्या बढ़कर बाद में 18 हो गयी थी। शिक्षा के क्षेत्र में उनके इस विशेष प्रयास के लिए 16 नवंबर 1852 को, ब्रिटिश सरकार ने फुले परिवार को शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए सम्मानित किया जबकि सावित्रीबाई को सर्वश्रेष्ठ शिक्षक का सम्मान दिया गया।
आज कृतज्ञ राष्ट्र अपने युग नायिका सावित्रीबाई फुले की 191वीं जयंती को राष्ट्रिय शिक्षक दिवस (National Teachers Day) के रूप में मना रहा है और उनके मानवता के अगणित योगदान के लिए उन्हें याद कर रहा है और उनके कार्यों के प्रति उन्हें सादर नमन कर रहा है।
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डॉ सूर्या बाली “सूरज धूर्वे” अंतर्राष्ट्रीय कोया पुनेमी चिंतनकार और कोइतूर विचारक हैं. पेशे से वे AIIMS (भोपाल) में प्रोफेसर हैं. उनसे drsuryabali@gmail.com ईमेल पर संपर्क किया जा सकता है.
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बेहतरीन संकलन ड़ाक्टर साहब।