
अरविंद शेष (Arvind Shesh)
‘डोन्ट लुक अप’ भी सुर्खियों में है। जो दौर चल रहा है, उसमें जो भी चीज सुर्खियों में हो, उस पर एक बार तो शक कर ही लेना चाहिए! दिमाग के ‘डिटॉक्सिफिकेशन’ (अंग्रेजी का एक शब्द जिसका अर्थ है गलत खानपान की वजह से शरीर में बन गए ज़हरीले तत्वों को निष्क्रिय करने के लिए लिए उपचार) में मदद मिलती है। दूसरी बात, हम यहाँ कलाकारों की अदायगी या फिल्म पर लागत या मुनाफे पर बात न करके फिल्म के पीछे खेली कलाकारी पर बात करने की कोशिश करेंगे कि दर्शकों को यह क्या परोसती है या सहजता से निगल लेने को उत्साहित करती है।
हर तरफ विकास के शोर में पर्दे पर चल रहे फिल्म के नेपथ्य (जो पर्दे के पीछे होता है/रचा जाता है) में अगर नहीं देखा जाए तो पता नहीं क्या-क्या निगलना पड़ जाए..! पर्दे पर नज़र टिकाए रखने की वजह से पता नहीं क्या-क्या निगलना पड़ ही रहा है..!
एक लाइन में कहें तो ‘डोन्ट लुक अप’ पहली नज़र में विज्ञान और वैज्ञानिकों की बात मानने के लिए कहती है। यह बताती है कि अगर आप हल्के-फुल्के विचार और बर्ताव वाले हुक्मरानों के कहे में आए तो आप तो जाएंगे ही, दुनिया भी जाएगी! लेकिन क्या यह सचमुच यही है?
पिछले दो-ढाई दशकों के दौरान मैंने न जाने कितनी बार ऐसी बाबाई खबरें पढ़ी-सुनीं कि अब दुनिया खत्म होने वाली है, क्योंकि कोई प्रलय आने वाला है, कोई आसमानी ग्रह टूट कर धरती की ओर आ रहा है तो सुनामी आने वाली है तो कहीं किसी वजह से समूचा इंसानी समाज खत्म होने वाला है! यह सब बताने के लिए कभी किसी ‘नाशा’ का सहारा लिया गया तो कहीं किसी वैज्ञानिक का तो कहीं किसी विज्ञान की ‘स्टडी’ का, निहायत ही तंत्र-मंत्र और आस्थावादी भविष्यवाणियों के फार्मूले पर!
लेकिन अब पिछले दो सालों ने कम से कम मुझे मुख्यधारा के विज्ञान और वैज्ञानिकों को जिस रूप में समझने के लिए मजबूर किया है, उसमें अब मेरे लिए ज्यादा जरूरी यह हो गया है कि विज्ञान और वैज्ञानिकों के हवाले से की गई बातों को मेरी वैज्ञानिक चेतना किस शक्ल में कबूल करती है! मैं विज्ञान का शोधार्थी टाइप नहीं हूँ, लेकिन यह वैज्ञानिक चेतना मैंने बहुत मेहनत और संघर्ष से हासिल की है।
‘डोन्ट लुक अप’, मतलब कि ‘ऊपर मत देखो’ में अमेरिका की महिला राष्ट्रपति को लगभग डोनाल्ड ट्रंप के ‘अवतार’ में दिखाया गया है, जिसमें ट्रंप के झक्कीपने को उसके मुख्य बर्ताव के तौर पर पेश किया गया है। उसी झक्कीपने या हल्केपन की वजह से पहले वह विज्ञान और एक वैज्ञानिक की चेतावनी को हल्के में लेती है और जब उसके एक करीबी बड़े कारोबारी को लगता है कि इसमें ‘आपदा में अवसर’ टाइप कुछ है तो धरती बचाने का ठेका वह उसको दे देती है। वैज्ञानिक की चेतावनी यह है कि एक बड़ा उल्का पिंड या अंतरिक्षीय ग्रह का टुकड़ा धरती की ओर तेजी से बढ़ रहा है और समय पर उसे रोकने का इंतजाम नहीं किया गया तो उसके धरती पर गिरने से समूची दुनिया खत्म हो जाएगी।
ट्रंप टाइप अमेरिकी राष्ट्रपति के हल्केपन और कारोबारी के साथ उसके भ्रष्ट गठजोड़ की वजह से कई दिन की देरी हो जाती है और आखिरकार वह बड़ा टुकड़ा समंदर में गिरता है, सुनामी आती है और समूची दुनिया खत्म हो जाती है।
कुल मिला कर यही कहानी है समूची फिल्म में, जिसमें यह बताने की कोशिश है कि अगर विज्ञान और वैज्ञानिक की वक्त पर नहीं सुनी जाएगी और ट्रंप टाइप सिरफिरे हुक्मरान की ‘खतरे से मुंह चुराने’ यानी ‘ऊपर नहीं देखो’ यानी कि आसमान से गिरती आफत की अनदेखी करो टाइप सलाह मानी गई तो दुनिया खत्म हो जाएगी।
बेशक यह सैद्धांतिक कसौटी पर पूरी तरह सही स्थापना है। लेकिन क्या सचमुच यह इतना ही है?
पिछले दो सालों पर गौर करें। कोरोना के हमले के वक्त ट्रंप का हल्का और अगंभीर बर्ताव सुर्खियों में था, लेकिन उसी दौर में ट्रंप ने कोरोना के पूरे प्रोग्राम पर कुछ तल्ख सवाल उठाए थे, पर्दे के पीछे की कुछ बातों का जिक्र किया था और इस महामारी को लेकर सामूहिक-सार्वजनिक धारणा के बरक्स कुछ शक रखे थे। इस इतर और इसके समांतर बहुत सारे वैसे लोग भी सवाल उठा रहे थे/हैं, जिन्होंने बहुत मेहनत से विज्ञान के ही सिद्धांतों, तथ्यों, खोजों को आधार बना कर दुनिया को आईना दिखाया कि कारोबारी दुनिया के इशारे पर थिरकने वाले कठपुतली वैज्ञानिकों और विज्ञान की दुनिया के बजाय वास्तविक विज्ञान की कसौटी पर चीजों को रखो, परखो, देखो-समझो और तब कबूल करो, जिधर तुम्हारे राजा या हुक्मरान या कथित लोकतांत्रिक शासक कारोबारियों और साजिशकर्ताओं के इशारे पर बताते हैं, दिमाग की आंख बंद करके उसे लेकर भेड़ नहीं बनो!
लेकिन वास्तविक विज्ञान की कसौटी की बात करने वालों को एक ‘हल्के व्यवहार वाली औरत’ और राष्ट्रपति की छवि में घोल कर पेश करके या उसके बराबर करके इस फिल्म में यही बताने की कोशिश की गई है कि इन लोगों की वजह से दुनिया खत्म हो जाएगी।
खुद विज्ञान की ही यह कसौटी है और यही वैज्ञानिक चेतना है कि सवाल उठाना विज्ञान की फितरत है। लेकिन विज्ञान के मेनस्ट्रीम पर सवाल उठाने को किसी मूर्खता के मजहब के दायरे की ‘ईशनिंदा’ की तरह पेश किया गया और सवाल उठाने वालों को लगभग सूली पर चढ़ाने लायक माना गया। यह मुमकिन भी हुआ, क्योंकि मीडिया की शक्ल में एक लाउडस्पीकरी हथियार पर इस समूची योजना पर उनका कब्जा था और उसे वे किसी कठपुतली या रोबोट की तरह नचा सकते थे, खौफ का कारोबार कर सकते थे। इस तरह परोसे गए खौफ के सामने सिर झुका लेना तांत्रिकों-ओझाओं और चमत्कारी बाबाओं के सामने अपने दिमाग का समर्पण है, चाहे यह खौफ विज्ञान और वैज्ञानिकों के पर्दे में ही क्यों न परोसा गया हो।
इस लिहाज से देखें तो यह फिल्म भी ‘माइंड प्रोग्रामिंग’ या ‘प्रिडिक्टिव माइंड प्रोग्रामिंग’ का ही हिस्सा है, हथियार है, जिसके जरिए लोगों को इस बात के लिए तैयार किया जा रहा है कि आने वाले वक्त में जो भी होगा, उसे वे जैसे का तैसा अपने दिमाग में उतार लें, उसे सही और स्वाभाविक नतीजा मानें, उसके पीछे किसी चाल या खेल को खोजने की कोशिश न करें। कोई सवाल न उठाएं कि जिस विज्ञान और वैज्ञानिक अध्ययनों के हवाले से या ‘एक स्टडी के मुताबिक’ टाइप जुमलों के सहारे जितने प्रवचन परोसे गए, दुनिया के खत्म होने की धमकियां दी गईं, उनका क्या हुआ! या फिर कहीं वे चेतावनियाँ पाइपलाइन में तो नहीं हैं, जो पर्दे पर दिखते हड़बोंग के समांतर दूसरे खुफिया रास्तों से ज़मीन पर उतारी जा रही हैं, लोगों को गुलाम बनाने के लिए जंजीरें कसी जा रही हैं, कत्ल और कत्लेआम को मौत मानने, ‘द पर्ज’ यानी अराजकता यानी कत्ल, लूट, बलात्कार के दिन की वैध व्यवस्था बनाने या फिर लोगों की जिंदगी को खुदकुशी के रास्ते पर भेजने का रास्ता तैयार किया जा रहा है।
क्यों सबसे ज्यादा बड़ा हमला विवेक, कॉमन सेंस और क्रिटिकल थिंकिंग या स्वतंत्र और आलोचनात्मक चेतना पर किया जा रहा है? क्यों इस चेतना की बात करने वालों को खलनायक या विलेन की तरह पेश किया जा रहा है? क्यों इस चेतना और सवालों से लैस लोगों को भी किसी हल्के या सिरफिरे हुक्मरान के बराबर करके पेश करके या उसी में घोलने का खेल चल रहा है? क्या यह सच नहीं है कि इसी चेतना वाले लोगों के बूते दुनिया आज इस मुकाम तक का सफर कर सकी है?
यह नोट किया जाना चाहिए कि ‘माइंड प्रोग्रामिंग’ और ‘प्रिडिक्टिव माइंड प्रोग्रामिंग’ को लेकर हॉलीवुड ने बहुत सारा और लगातार काम किया है। यह किसके मालिकाने में, किसके पैसे से, किस समुदाय की योजनाबद्ध कोशिशों से हुआ, शोधकर्ताओं को इस पर काम करना चाहिए। शीतयुद्ध के दौरान इसकी सबसे ज्यादा उपयोगिता सामने आई, जब फिल्मों के जरिए ही इस हथियार ने दुनिया भर में यह धारणा बनाने में कामयाबी हासिल की कि सोवियत संघ और कम्युनिज्म कैसे इंसानियत और दुनिया के दुश्मन हैं। और आखिरकार सोवियत संघ खत्म हो गया और वहाँ का कम्युनिज्म अब यादों में है!
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अरविंद शेष हिंदी जगत के जाने-माने पत्रकार, लेखक एंव फिल्म समीक्षक हैं. उनसे arvindshesh@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.