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राहुल सोनपिंपले (Rahul Sonpimple)
बीफ की दो बोटियाँ तोड़ के
आधा गीला शरीर घर के उस कोने की तपी दिवार पे रख के
बीड़ी के दो कश लगाना सुकून भरा तो रहा होगा
हम्म हम्म करते हुए
बच्चों की बस आधी बात सुनके
हर रोज़ गहरी नींद में डूब जाना आदत थी?
या उन् निक्कमे साइकिल रिक्शा के दो जाम पैय्यों की करामात
ज़िद्दी और अड़ियल
दिन भर कसाये, जैसे शरीर से पूरी जान ही निकल जाये
आधी उम्र में आधा शहर भी नहीं देखा होगा
बीवी को बच्चों के साथ छोड़ जाना
कोई बीमारी से, कोई शराब से, कोई किसी नुकीले औज़ार से…
आधी बस्ती के मर्दों ने शादी जैसे बीवी को विधवा करने के लिए ही की हो
क्या वुमन एजेंसी और क्या स्ट्रुक्टर …
सिंगल-मदरहुड, जैसे कल्चर ही हो बस्ती का
खुद का बचपन अभी जिया भी नहीं कि
कभी छोटे भाई-बहन का तो कभी खुद के बच्चों का
बालपन सँभालने के लिए जबरदस्ती ही ज़िम्मेदारी बजाओ!
जैसे ज़िम्मेदारी तो गरीबी ने दिया कोई खिलौना हो!!
हर गली में हीरो, हर गली में हीरोइन
फिल्मों के कॉलेज की लव-स्टोरियां
यहाँ जैसे दंतकथा ही हो
यहाँ तो स्कूल ख़तम होने के पहले ही
आशिकी १ – आशिकी २ चलती है
सब के दिमाग में ‘अपुनिच हीरो’ और ‘अपुनिच हीरोइन’
किसी की लव स्टोरी में कोई दिक्कत नहीं
पहले प्यार और फिर भाग के सीधा शादी
यहाँ कुछ अलग नहीं, शादी भाग के हो या परिवार की मर्ज़ी से
पति का अच्छा होना जैसे लकी-ड्रा ही हो
इस बस्ती में किसी को लाया नहीं गया
माँ कहती है,
किसी को गांव के जमींदार की गालियों और दो कौड़ियों के लिए
दिन भर शरीर तपना पसंद नहीं था
कोई गांव के मंदिर में छुपे हुए भगवान से परेशां था
जो सिर्फ गांव के पूर्व दिशा में रहने वालों की सुनता था
और कोई इस शहर की रंगीन रौशनी में अपना सितारा चमकाने आया था
और कौन कौन आते हैं यहाँ?
आते हैं….
समाज के बाबू सूट-बूट पहन के
और कहते है कि तुम भी पहनो, बाबासाहेब ने कहा था
गरीबी के कारन बताते हैं, पढ़ने-लिखने के लिए कहते हैं
और कुछ तो दान-दक्षिणा भी देते हैं
आते है… बड़े लोग आतें हैं यहाँ
हाँ, साल में एक-दो बार आतें हैं
वो कहते हैं, हम सब डेमोक्रेसी का हिस्सा हैं
जैसे वो बन गए हैं
कुछ हमारे, कुछ उनके और पूरी हुकूमत के
लगता हैं जैसे सब के सब डेमोक्रेसी के ‘कमिटेड-कमांडर्स’
इतनी डेमोक्रेसी कि हम सब भूके मर जाएं इस डेमोक्रेसी को बचाने के लिए
इस बार समाज के पढ़े लिखे लोगों ने हमारी चिंता में
कुछ सन्देश भेजे हैं
“घर से बहार नहीं निकलना है, किसी भी तरीके से इस सभ्य समाज में हम असभ्य नज़र ना आएं”
चिंता जैसे सभी की है
उनकी सभ्यता की और हमारी कल की रोटी की
घर की छत्त पे चढ़के
हमेशा की तरह, दो खपरों के बीच में नीला झंडा तो लहराएगा
पिछले एक महीने से रोज़ घर के भीतर ही रहो
इन् खबरों से परेशां होके मेरा भाई गुस्से से सभी घरवालों को बता रहा है-
इस बार नीला झंडा लहराएगा, नीले आकाश में
इस बार भी बाबासाहेब नीले आकाश में सूरज की तरह तपेंगे
उनकी रोशनी से इस बार सिर्फ बस्ती के अँधेरे दूर नहीं होंगे
इस बार ये सूरज आग भी लगायेगा
संभल के रहना
आपकी इस मिथक डेमोक्रेसी में कहीं हमारा विश्वास ना जल जाये
~~~
राहुल सोनपिंपले जे.एन.यू. के बहुजन विद्यार्थी ग्रुप, बिरसा आंबेडकर फुले स्टूडेंट्स एसोसिएशन (BAPSA) के प्रधान रह चुके हैं और विद्यार्थी व् बहुजन आन्दोलन में सक्रिय हैं.
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