लेनिन मौदूदी (Lenin Maududi) आमतौर से अफ्रीका के लोगो को गरीब-मज़लूम, बर्बर , असभ्य दिखाया जाता है. इस फ़िल्म ने कल्पना में ही सही पर इस मान्यता को तोड़ा है. ये फ़िल्म एक बड़े डिस्कोर्स पे बनी है कि “ज़ुल्म और ज़ालिम के खिलाफ आप की तटस्ता कितनी उचित है?“ इस फ़िल्म की कहानी अफ्रीका के पांच कबीलों की कहानी […]
आंबेडकरवादी राजनीतिक दर्शन के परिपेक्ष्य में फ़िल्म ‘न्यूटन’ की वैचारिक समीक्षा
ऋषिकेश देवेंद्र खाकसे (Hrishikesh Devendra Khakse) जीवन के लगभग हरेक क्षेत्र मे प्रतिगामी विचारधारा का नायकत्व विद्यमान है. टेलीव्हिजन, फिल्म तथा माध्यम जगत का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है. इस मूलतत्ववादी विचारधारा को संचालित करने वाला प्रस्थापित वर्ग, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से तय विचारधारा को टेलीव्हिजन तथा फिल्म माध्यम के फॉर्म से भूमिका, विशेषणों, प्रतीक, स्थल आदी द्वारा […]
माहवारी से गुज़रती हैं महिलाएं, नियम चलते हैं पुरुषों के
आरती रानी प्रजापति महावारी 10-14 की आयु में शुरू होने वाला नियमित चक्र है. जिसमें स्त्री की योनि से रक्त का स्त्राव होता है. यह वह समय है जब स्त्री के शरीर में कई परिवर्तन होते हैं. महावारी सिर्फ शरीर में घट रही एक घटना नहीं है बल्कि इसका सम्बन्ध दिमाग से भी है. महावारी के समय स्त्री थकान महसूस […]
गंभीर मुद्दों की ओर इशारे हैं ‘न्यूटन’ फिल्म में- एक समीक्षा
लेनिन मौदूदी (Lenin Maududi) जब सरकार चुनाव सिर्फ इसलिए कराए ताकि ये दिखा सके कि किसी क्षेत्र विशेष पर अब उसका अधिकार है तब ऐसे में मन में एक सवाल उभरता है कि लोकतंत्र है क्या फिर? क्या चुनाव, मंत्री, विधायिका, संसद ही लोकतंत्र है या स्वतंत्रता, समानता, न्याय, गरिमा, विरोध/असहमति का अधिकार जैसे आदर्श लोकतंत्र है. इसी बात की […]
पी.के. कभी नहीं कह पायेगा ‘तोहार बॉडी पर जाति का ठप्पा किधर है’
लेनिन मौदूदी (Lenin Maududi) प्रगति के समर्थक प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य है कि वह पुराने विश्वास से संबंधित हर बात की आलोचना करे, उसमें अविश्वास करे और उसे चुनौती दे. प्रचलित विश्वास की एक-एक बात के हर कोने-अंतरे की विवेकपूर्ण जाँच-पड़ताल उसे करनी होगी. यदि कोई विवेकपूर्ण ढंग से पर्याप्त सोच-विचार के बाद किसी सिद्धांत या दर्शन में विश्वास […]
कैलाश वानखेड़े की बहुआयामी कथा ‘जस्ट डांस’ को सम्मान
कथाकार कैलाश वानखेड़े हिंदी साहित्य के क्षेत्र में अपनी हर नई कहानी के साथ गाढ़े होते हस्ताक्षर हैं. उनके कहानी संग्रह ‘सत्यापन’ ने अपने विषय -सामग्री, दृष्टिकोण और लेखन-विधा के चलते सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा था. गए 28 अगस्त को उन्हें उनकी नई कहानी ‘जस्ट डांस’ के लिए ‘राजेंद्र यादव ‘हंस’ कथा सम्मान 2017′ से सम्मानित किया […]
भारतीय कौमवाद (राष्ट्रवाद) : हकीक़त या छल
सरदार अजमेर सिंह (S. Ajmer Singh) ‘कौमवाद’ का संकल्प, मूल रूप में एक पश्चिमी संकल्प है जो अपनी साफ़ साफ़ सूरत के साथ मध्ययुग के आखिरी दौर में प्रकट हुआ. यह प्रिक्रिया जितनी व्यापक यानी फैली हुई है, उतनी ही अलग भी है. व्यापकता, एतिहासिकता और भिन्नता-विभिन्नता इसके संयुक्त लक्षण हैं. इसलिए इसकी कोई ठोस या पक्की परिभाषा संभव […]
…ये सबसे सुरक्षित और सबसे कारगर काम है
संजय जोठे (Sanjay Jothe) भारत के दलितों आदिवासियों, ओबीसी (शूद्रों) और मुसलमानों को मानविकी, भाषा, समाजशास्त्र, दर्शन इतिहास, कानून आदि विषयों को गहराई से पढने/पढाने की जरूरत है. कोरा विज्ञान, मेडिसिन, मेनेजमेंट और तकनीक आदि सीखकर आप सिर्फ बेहतर गुलाम या धनपशु ही बन सकते हैं, अपना मालिक और अपनी कौम के भविष्य का निर्माता बनने के लिए आपको […]
सिखों के स्वशासन के अधिकार पर डॉ. अंबेडकर का बहुमूल्य मशवरा
यह आर्टिकल सरदार अजमेर सिंह की किताब ‘बीसवीं सदी की सिख राजनीती – एक गुलामी से दूसरी गुलामी तक’ से लिया गया है। (पंजाब के विभाजन के बाद बनी परिस्थितियों और अलग सिख राज्य पर) पंजाब के विभाजन के बाद पूरबी पंजाब में अलग अलग वर्गों की जनसँख्या के अनुपात में खासी तब्दीली आ गई थी। पश्चिमी पंजाब […]
मैं एक पीडिता की मौत नहीं मरूंगी, मैं एक अग्रणी (लीडर) की तरह जीना चाहती हूँ।
मनीषा मशाल दलित महिलाओं की आवाज को किसी भी कीमत पर उठाने के लिए कटिबद्ध हूँ. क्योंकि यदि हम इन स्वरों को बाहर नहीं आने देंगे, तो हम इस दुःख को समाप्त करने के उपाय नहीं खोज सकते. क्या यह बहुत कठिन होगा? हाँ. मुझें अनेकों चुनौतियों, जोखिमों और धमकियों का सामना भी करना होगा. परन्तु मुझे किसी का भी […]