
ओमप्रकाश महतो (Omprakash Mahato)
ऐसे सामाजिक वैज्ञानिक भी हैं जो केवल कागज़ों-किताबों के माध्यम से या सम्मेलनों और सेमिनारों में भाग लेकर या समाज का दूर से अवलोकन आदि करके ही जाति पर अपने विचार विकसित करते हैं. जबकि पाठ्यपुस्तकों को पढ़ना एक पारंपरिक तरीका है, कुछ विद्वान बॉलीवुड फिल्में देखने, समाचार पत्र पढ़ने, न्यूज़-रूम स्टूडियो में बहस देखकर, अपने चैंबर में बैठे-बैठे शोध विद्वानों (research scholars) के साथ चर्चा और बहस करके, अपने घर में व्याप्त सुविधाओं का आराम फरमाते हुए अपने ‘सिद्धांतों’ को विकसित करते हैं, जिसे हम में से कई बर्दाश्त नहीं कर पाते.
यहाँ अन्य, ‘सामान्य’ लोग भी हैं, जो जाति और वर्ग को ‘सामान्य’ (‘general’) बहस के माध्यम से समझते हैं, जो चाय की टपरियों पर निर्मित आख्यानों (narratives), आरक्षण और भ्रष्टाचार के बीच क्या रिश्ता है, उसपर बात करते हैं। इन सभी से अलग, हाशिए पर मौजूद, उत्पीड़ित, दलित-बहुजन, शैक्षणिक संस्थानों में पहली पीढ़ी के शिक्षार्थी हैं, जो अपने जीवित अनुभव के माध्यम से जाति और वर्ग-चेतना को स्पष्ट करते हैं। उदारवादी अपने जातिगत विशेषाधिकारों का दोहन करते हैं, अकादमिक लेखों को प्रकाशित करते हैं और पश्चिमी शिक्षाविदों में खुद को जाति-विरोधी विचारकों के रूप में स्थापित करने की होड़ में लगे हुए हैं। हालांकि, वे लोग खुद ही जातिगत भेदभाव के अस्तित्व को स्वीकार करने में विफल हुए हैं जो भारतीय विश्वविद्यालयों जैसे जेएनयू, डीयू, जादवपुर विश्वविद्यालय, प्रेसीडेंसी कॉलेज और अन्य शैक्षणिक संस्थानों में रहते हुए खुद ही जातिगत भेदभाव करते हैं। यही कारण है कि जाति-विरोधी राजनीति को समझने के लिए उदारवादियों के भीतर ‘दर्शन की कंगाली को बाहर लाना ज़रूरी हो जाता है।
बहुजन समुदाय (अनुसूचित जाति+अनुसूचित जनजाति+पिछड़ी जातियाँ, सभी धर्मों में) के समूचेपन को अगर समझना है, या फिर जाति-विरोधी राजनीति पर अगर अकादमिक राय सामने रखनी है, तो करने लायक पहला काम ये है कि लोगों को उसी कॉन्टेक्स्ट यानि संदर्भ के भीतर रखा जाए, जिसमें कि वे रहते हैं. उसके बाद उस वक़्त घटी प्रमुख घटनाओं का अध्यन करके समझने की कोशिश की जाए कि लोगों पर इन घटनाओं के क्या प्रभाव पड़े हैं, उन्हें तब मापिये. इसलिए, यह देखना महत्वपूर्ण हो जाता है कि ये मामले या घटनाएँ जिनके ऊपर घटे हैं/घटीं हैं, वे कौन हैं? वे कहाँ से आते हैं? वे किस वर्ग से हैं? समाज में इन लोगों की सामाजिक स्थिति क्या है? उन लोगों की आकांक्षाएं क्या हैं? वे अपनी माँग को कैसे स्पष्ट करते हैं? राज्य उन्हें कैसे देखता है?
ऐसा लगता है कि उपरोक्त प्रश्न डॉ. अजय गुदावर्ती (Dr. Ajay Gudavarthy) द्वारा लिखे गए लेख ‘द क्राइसिस ऑफ दलित-बहुजन पॉलिटिक्स’ जो हिंदू स्तंभ (column) में छपा था, के विश्लेषणात्मक फ्रेम से बच गए हैं। उन्होंने दुःख जताया है कि इन समुदायों की जो माँग है वह प्रतिनिधित्व के सवाल तक ही सीमित है। डॉ. अजय की एक जाति-विरोधी आन्दोलन के बारे में ये समझ छिछलेदार है. एक ऐसे आन्दोलन के बारे में अभिव्यक्ति को मात्र प्रतिनिधित्व के सवाल तक सीमित नहीं किया जा सकता और ऐसा बिलकुल होना भी नहीं चाहिए. यदि प्रतिनिधित्व ही इन लोगों की एकमात्र मांग है, जिसका ध्यान बीजेपी ने रखा ही है, तो फिर ये लोग हिंदुत्व ताकतों के खिलाफ क्यों आंदोलन कर रहे हैं? फासीवादी शासन के खिलाफ देश भर में कौन से लोग हैं जो लड़ रहे हैं?
किसी भी संस्थान में उपस्थिति, चाहे वो शैक्षणिक संस्थान, संसद, विधानमंडल, नौकरशाही, न्यायपालिका और अन्य कोई हो, ये सब संघर्ष का प्रारंभिक आधार हैं। इसके अलावा, निर्णय लेने की प्रक्रिया में समुदायों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व और उपस्थिति एक राजनीतिक अधिकार है, यह कोई माँग नहीं है, जिसे डॉ. गुदावर्ती दलित-बहुजन आंदोलन के बारे में अपनी छिछली और उथली समझ द्वारा समझने में विफल हुए हैं। अधिकार और माँग एक दूसरे के पर्यायवाची नहीं हैं और दोनों अपने आप में अलग-अलग अर्थ रखते हैं। संविधान में अधिकारों की गारंटी दी गई है, जबकि माँगें किसी भी समुदाय द्वारा प्रस्तुत आकांक्षा की राजनीतिक अभिव्यक्ति हैं। पूर्व मामले में जहाँ राज्य अपने संवैधानिक कर्तव्य को करने के लिए बाध्य है, वहीं दुसरे मामले में, माँग एक उत्पीड़ित समुदाय और राज्य के बीच निरंतर चलती बातचीत है। एम. एन. ठाकुर, एक और उदार राजनीतिक वैज्ञानिक और एक गांधीवादी हैं जिन्हें लगता है कि जाति-विरोधी पहचान की राजनीति सार्वभौमिकता यानि यूनिवर्सलिस्म के विचार के लिए एक खतरा है। एक पहचान जो कि उत्पीड़न का स्रोत है और एक पहचान जो उसकी मुखालफ़त का स्रोत है, ये जनाब ये भेद करने में विफल रहे हैं. उदारवादियों की गरीबी अम्बेडकरवाद को सार्वभौमिक रूप में मान्यता देने में निहित है, कुछ ऐसा जो गांधीवाद से आगे जाता है, और इसे केवल पहचान तक सीमित नहीं रखता, जैसा कि जैफरलॉट जैसे विद्वानों का तर्क है.
यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि जाति-विरोधी आंदोलनों के बारे में गलत प्रचार और गलत बयानी का नेतृत्व अक्सर दक्षिणपंथी और वामपंथी बुद्धिजीवियों द्वारा किया गया है, जो उत्पीड़ितों और उनके इतिहासों के स्वाभिमानी-आंदोलन को तोड़ते-मरोड़ते हैं और उसको नुकसान पहुँचाते हैं। यह बेहतर होगा कि उदारवादी अपना आत्मनिरीक्षण करते हुए एक कदम पीछे लें नाकि जाति-विरोधी आंदोलनों को गलत तरीके से पेश करते रहें. हाशिए के समुदायों की आवाज़ों के साथ तालमेल बैठाने में कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन उनकी गलत बयानी एकजुटता की भावना के बजाय वामपंथी बुद्धिजीवियों के प्रति संदेह और अविश्वास ही पैदा करती है। ऐसा क्यों है कि ज्यादातर उच्च जाति के उदार बुद्धिजीवी चिरकाल से ही दलित-बहुजन के प्रति संदिग्ध हैं, जबकि उनके पास समाज को पेश करने लायक कुछ भी नहीं? आज़ादी के सात दशकों में दलित-बहुजनों को वामपंथी उदारवादियों ने क्या दिया है जो अधिक अच्छा है या क्या बेहतर विज़न दिया है?
उदारवादी विद्वानों ने अपने बौद्धिक शब्दजाल के साथ जाति-विरोधी राजनीति की प्रकृति को धुंधला किया है। जबकि वामपंथी दावा करते हैं कि दलित-बहुजन एक संदिग्ध चीज़ है, और दक्षिणपंथी इसी संदेह वाले समूह पर स्थाई रूप से हिंसा करते हैं जो वाम द्वारा बनाया गया है. राईट विंग वही करता है जिसे वाम ने अपने सिंद्धांतों में स्थिर बनाया होता है. यही कारण है कि कांचा इलैया (From a Shepherd Boy to an Intellectual: My Memoirs) का कहना है कि भारत में वामपंथी ‘हरी घास में हरे सांप’ हैं, जो कि बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक साहेब कांशीराम का एक प्रसिद्ध बयान है। राजनीति के हर रूप की अपनी सीमाएँ होती हैं और ऐसा ही जाति-विरोधी राजनीति के साथ भी है। हालांकि, संकट जाति-विरोधी राजनीति में नहीं है, बल्कि नेतृत्व में रह गए फ़ासले में है। जाति विरोधी जन आंदोलन जैसे रोहित वेमुला, ऊना, सहारनपुर, भीमा कोरेगांव, एस.सी./एस.टी. एक्ट के कमजोर पड़ने पर भारत बंद, यूजीसी द्वारा फैकल्टी नियुक्तियों में लाए गए 13-पॉइंट रोस्टर प्रणाली से लड़ना, कुछ प्रमुख घटनाएं हैं जहाँ उदारवादी इन्हें अपने लेखन में जगह देने में विफल रहे हैं. ये आंदोलन सहज थे और बाद में एक उचित नेतृत्व की कमी के चलते बाहर निकाल दिए गए। ये आन्दोलन, कुछ वाम-उदारवादीयों को सुहाती हुई ‘क्रांतियाँ’ भले ही न ला पायें हों, लेकिन इसने समाज में हो रहे अन्याय के बारे में दलित-बहुजन की चेतना को फैला दिया है। इसी तरह, ‘द हिंदू’ द्वारा प्रकाशित अपने एक अन्य लेख ‘दलित राजनीति में एक सही बदलाव’ से गुदावर्ती अपनी परिकल्पना को साकार करते हैं कि “लगता है कि दलित ‘जाति के सफाए’ (annihilation of caste) के एजेंडे से हटकर पूरी तरह ‘जाति की धर्मनिरपेक्षता’ (secularisation of caste) पर आ गए हैं. और हिंदू से विमुख होकर इसे छोड़ने की बात से शिफ्ट करके, पूरे सक्रिय रूप में हिंदू पहचान का दावा करने लगे हैं, जैसा कि पिछले कुछ महीनों में उत्तर प्रदेश में फैले सांप्रदायिक दंगों से स्पष्ट है जो मुख्य रूप से दलितों और मुसलमानों के बीच हुए हैं.” वह परिकल्पना जिसे वह स्वयं सिद्ध मानकर चल रहा है और उसका बचाव भी कर रहा है, उसके पीछे कोई तथ्यात्मक साक्ष्य नहीं है और इस तरह वह एक विशेष घटना का सामान्यीकरण (generalization) कर रहा है, और ये काम उच्च जाति के वामपंथी उदार विद्वान लोग अक्सर करते आये हैं.
विशेषवाद के इस अस्वाभाविक सामान्यीकरण ने अक्सर पाठकों को दलित-बहुजन समुदाय के प्रति गलत धारणाएं पैदा करने के लिए प्रेरित किया है। डॉ. गुदावर्ती के विचार के विपरीत, राहुल सोनपिम्पले ने अल-जज़ीरा में प्रकाशित ‘Dalit conversions: An act of rebellion against caste supremacy’ शीर्षक से एक लेख में सवाल उठाते हुए कहा, “एक बार फिर, भारत के उदारवादी, कट्टरपंथी वामपंथी और रूढ़िवादी पूछ रहे हैं, एक आवाज़ में न सही लेकिन एक सधी हुई आवाज में: ‘दलित धर्मांतरण क्यों चुन रहे हैं?’ सोनपिम्पले का तर्क है कि दलितों के बड़े पैमाने पर अन्य धर्मों में धर्मांतरण ने हिंदू बुद्धिजीवियों के भीतर चिंता और गुस्सा पैदा किया है।
‘द इंडियन एक्सप्रेस’, 29 अप्रैल 2018, बताता है कि ऊना की घटना के बाद 300 से अधिक दलित बौद्ध धर्म में परिवर्तित हो गए। यह परिवर्तन विद्रोह और भेदभाव और जाति आधारित हिंसा का विरोध करने के लिए किया गया था. द इंडियन एक्सप्रेस ने ‘Why Buddhism invites Dalits?’ (क्यों बौद्ध दलितों को आमंत्रित करता है?) शीर्षक के एक अन्य लेख में कहा है कि अंबेडकर का धर्म परिवर्तन का अपना दृढ़ निर्णय था जो बौद्धिक और भावनात्मक दोनों आधारों पर लिया गया था. एलेनोर ज़ेलियट (Eleanor Zelliot) के शब्दों में यह धर्म परिवर्तन एक “ऐसे धर्म के छुरा भोंकना था जिसने उन्हें समानता और आत्म-सम्मान से वंचित कर दिया था”. इसने हिन्दू धर्म में सहिष्णुता की इज्ज़त को जो प्रचारित किया गया, उसके लिए और साथ ही में हिन्दुओं की राजनीतिक इकाई के लिए भी एक खतरे के रूप में काम किया है.
[अप्रैल 2018 को महाराष्ट्र के एक गाँव, शिरसगाँव के वीरा मैदान में 500 से अधिक निम्न कही जाने वाली जाति के लोग हिन्दू धर्म से दूसरे धर्म में परिवर्तित हुए]
यह दावा कि दलित-बहुजन राजनीति की कल्पना प्रतिनिधित्व तक ही सीमित है, एक भोली समझ है और जाति-विरोधी मतों की संभावनाओं को सीमित करना चाहती है। दलित-बहुजन की राजनीति सामाजिक परिवर्तन की बात करती है। मुक्ति के रूप में धर्म-परिवर्तन और जाति का विनाश बड़े सामाजिक परिवर्तन की दिशा में दिशा-निर्देश हैं, जिस और जाति-विरोधी आंदोलन अग्रसर हैं। सहारनपुर के मामले में भी, सवर्ण वर्चस्व जिसे बीजेपी का समर्थन था और दलित-बहुजनों के बीच हुआ जातीय संघर्ष किसी प्रतिनिधित्व के लिए नहीं था, बल्कि आत्मसम्मान के मकसद के लिए किया एक संघर्ष था. जहाँ वामपंथ की राजनीति कागज़ों पर भौतिक सवालों तक सीमित है, वहीँ जाति-विरोधी राजनीति, सामाजिक और आर्थिक दोनों तरह की दर्जेबंदियों ज़मीन पर ले आती है।
यह कहने का मतलब यह भी नहीं है कि दलित-बहुजन राजनीति पवित्र है और इसमें कोई मुद्दे नहीं हैं। बेशक, नेतृत्व में संकट खड़ा हुआ है, क्योंकि अक्सर नेता “चमचा” बन जाते हैं, जिसे साहेब कांशीराम ने समुदाय के भीतर अपना हित साधते व्यक्तियों के लिए इस्तेमाल किया, कि जब उन्हें तत्काल सुरक्षा की जरूरत होती है तो राईट-विंग उसे मुहैया कराता है. यह प्रक्रिया जिसकी गुदावर्ती लेख में बात करते हैं, ‘दलित राजनीति में एक सही बदलाव’ (‘A Rightward shift in Dalit Politics’) नेतृत्व के स्तर पर हो रहा है, न कि पूरे दलित समुदाय में। इसके अलावा, नेतृत्व में बदलाव न केवल दलितों तक सीमित है बल्कि यह एक सामान्य घटना है। 2019 के लोकसभा चुनाव में, बंगाल और त्रिपुरा में वामपंथी कैडरों का व्यापक पैमाने पर राईट विंग में शिफ्ट हुआ, जिसे सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने स्वीकार किया। इससे ये अर्थ नहीं निकाले जा सकते कि क्यूंकि वामपंथ ने राईट विंग के साथ गठबंधन किया है, इसलिए दलित-बहुजन को भी राईट विंग के साथ गठबंधन करने में कोई समस्या नहीं है। यहाँ केवल एक ही बात है कि किसी एक अपवादी उदाहरण के दम पर पूरे समुदाय को भ्रष्ट या राष्ट्र-विरोधी करार देना, यही दक्षिणपंथ मुसलमानों के साथ करता है। तो ऐसा ही रास्ता वामपंथी बुद्धिजीवियों ने दलित-बहुजन को बिना किसी सिद्धांत वाली जनता-जनार्दन के रूप में दर्शा के, अपनाया है और, समाज में दलित-बहुजन के समाज को समतावादी और लोकतांत्रिक बनाने में उनके प्रतिदिन के योगदान को नकारते हुए शुन्यता पर ला छोड़ा है.
हालांकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ये अछूत-जन, जिन जनों को अपवित्र माना जाता था, यही वे असली जन हैं जो देश भर में फासीवादी ताकतों से लड़ रहे हैं। द्विजों को अछूत जनों पर थ्योरीयाँ घड़ने का और संदिग्ध रूप में चित्रित करने का विशेषाधिकार है.
उनकी जाति की हैसियत उन्हें ऐसा करने की प्रामाणिकता प्रदान करती है। लेकिन इनकी इन थ्योरीयों में भी एक स्पष्ट कमी है, और वह कमी है उस शोषण की जो इन द्विज हिन्दू जातियों ने अछूत जनों का किया. ये ऊँची जातियों वाले अपने विशेषाधिकारों के बारे में क्यों नहीं लिखते जो इन्हें ऊँची जाति के सदस्य होने के नाते प्राप्त हुए हैं? वे अपनी द्विज जाति की वजह से ऊपर उठने वाली इस गतिशीलता पर क्यूँ नहीं थ्योरीयाँ घड़ते? वह जातिगत भेदभाव, जो आपके ही के किसी सहयोगी या छात्र जो किसी विशेष समुदाय से आता है, रोज़ प्रताड़ित करता है, उस जातिगत भेदभाव के खिलाफ खड़े होने से उदारवादियों को कौन रोकता है. अगर ये उदारवादी इन सवालों पर चुप हो जाते हैं या वैसा कुछ भी जो इन्हें बोलने से रोकता है, तो यह जाति के अलावा कुछ नहीं है।
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ओमप्रकाश महतो, बिरसा अंबेडकर फुले स्टूडेंट्स एसोसिएशन (BAPSA) के अध्यक्ष हैं। वह पीएचडी हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज़ में रिसर्च स्कॉलर। ईमेल: om.mahato20@gmail.com
नोट: यह आलेख मूल अंग्रेजी भाषा में राउंड टेबल इंडिया (इंग्लिश) पर छपा था, जिसका हिंदी में अनुवाद गुरिंदर आज़ाद ने किया है.