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निखिल आनंद

 

2014 में केन्द्र में बीजेपी की सरकार आने के बाद भारत में सवर्णवादी ताकतें एकबार फिर पुरजोर तरीके से मुखर व आक्रमक हैं। जाहिर है कि समाज के दलित- आदिवासी- पिछड़ा- पसमांदा जमात के खिलाफ तमाम तरह के हथकंडे रचे जा रहे हैं ताकि इनके प्रतिनिधित्व एवं भागीदारी के सवाल को कुंद व खारिज किया जा सके। बहुजन समाज के सवाल को जिस प्रतिकात्मक तरीके से बीजेपी ने हल करने की कोशिश की है वह उनके शातिराना छद्म को उजागर करता है। रोहित वेमुला के आत्महत्या से उभरे बहुजन जनाक्रोश को दबाने के लिये जेएनयू को केन्द्र बनाकर एक सवर्ण कन्हैया को जबरन मुद्दा बना दिया गया जो वामपंथी ब्राह्मणों और दक्षिणपंथी ब्राह्मणों की एक दूसरे के खिलाफ प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष सामाजिक- राजनीतिक प्रतिक्रियात्मक ताकतों के रूप में खड़ा करने की कोशिश प्रतीत होती है। यह ऐसा इसलिये भी संभव हुआ कि इन दोनों ही पक्षों की खासी दिलचस्पी कांग्रेस को विमर्श से बाहर रखकर कमजोर करने में थी और साथ ही बहुजन जनाक्रोश को दफन करने में थी। यह अलग बात है कि कांग्रेस भी बहुजनों के भागीदारी से जुड़े सवाल पर कभी खास मुखर नहीं रही बल्कि दब्बू बनी रही है ताकि बहुजन सिर्फ पिछलग्गू बने रहें।

 

इसी बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का खुद को दलित- पिछड़ा समर्थक या फिर अम्बेडकरवादी घोषित करने की पुरजोर कोशिश करना, ये कई बातें हैं जो दलितों के मनुवाद- ब्राह्मणवाद विरोधी रूख को बड़े ही सामाजिक- मनोवैज्ञानिक तरीके से कुंद कर प्रगतिशीलता व राष्ट्रवाद के नाम पर सवर्णों के साथ समाहित करने का प्रयास दिखता है। उसी तरह दलित बनाम पिछड़ा बनाम आदिवासी और बहुजन बनाम मुसलमान जैसे द्वंद पैदा करने के प्रयासों में बीजेपी- संघ सक्रिय दिखाई देती है। हालांकि दलित बनाम पिछड़ा का द्वंद जितना सामाजिक है उससे कहीं ज्यादा राजनीतिक है जिसकी मूल धुरी व पृष्ठभूमि उत्तर प्रदेश की जमीन पर ज्यादा दिखलाई देता है। वैसे हाल ही के बिहार विधानसभा चुनाव (2015) में दलित- पिछड़ों की सामाजिक गोलबंदी सवर्णों के खिलाफ स्पष्ट देखने को मिली जो इस अवधारणा के अपवाद को प्रस्तुत करते हैं। लेकिन दलितों और पिछड़ों में मुखरता के उभरते स्वर के बीच आदिवासी समाज अपने मुद्दों को लेकर बहुत अलग- थलग पड़ता दिखाई देता है इसी तरह पसमांदा स्वर भी काफी दबा हुआ और गुमशुदा सा दिखाई पड़ता है जो बहुजन विमर्श में एक बड़ी चिंता का कारण है। कुल मिलाकर सवर्ण तंत्रों के द्वारा यह प्रयास लगातार किया जा रहा है कि एक समेकित बहुजन वैचारिक गोलबंदी मुद्दों को लेकर भी कत्तई न हो पाये और कम- से- कम शिक्षा केन्द्रों से इनके अधिकार व भागीदारी को तो जरूर ही खारिज कर दिया जाय। इनदिनों बीजेपी- संघ के कारण मनुवादी- ब्राह्मणवादी ताकतें आरक्षण के सवाल पर बहुत मुखर व आक्रमक दिखाई दे रही है तो जाहिर है कि इसका एक बड़ा खामियाजा बहुजन समाज को ही भुगतना पड़ेगा।

 

केन्द्र की बीजेपी सरकार अपने संघ के कार्यकर्ताओं को देशभर के महत्वपूर्ण शोध व शिक्षण संस्थानों एवं राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं में काबिज करने के अभियान में लगी है। कला, साहित्य, इतिहास से जुड़ी संस्थाएं हो या प्रसार भारती, डीडीन्यूज, एआईआर जैसे पब्लिक ब्राडकास्टर से लेकर एनबीटी, एनसीईआरटी, सीबीएसई, कॉलेज- विश्वविद्यालय में हो रही तमाम नियुक्तियाँ आरएसएस के निर्देश पर की जा रही हैं। इसी कड़ी में एफटीआईआई का निदेशक सी-ग्रेड की फिल्मों के कलाकार गजेन्द्र चौहान व निफ्ट का निदेशक क्रिकेटर चेतन चौहान को बनाना किसी मजाक से कम नहीं है। बहुजन समूह के बच्चों के लिये आज की तारीख में देश के सर्वोत्कृष्ट शिक्षाकेन्द्रों में छात्र या शिक्षक के तौर पर प्रवेश असंभव होता जा रहा है और जो संभव बना लेते हैं उनका सामाजिक- मनोवैज्ञानिक दबाव के बीच सम्मानजनक तौर पर संस्थान में टिक जाना चुनौतीपूर्ण कार्य है।

एससी- एसटी को मिले संवैधानिक संरक्षण के कारण तमाम अप्रत्यक्ष व मनोवैज्ञानिक दबाव के बावजूद उनके खिलाफ खुलकर बोलने से लोग हिचकते हैं पर ऐसा नहीं है कि उनके खिलाफ साजिशें कम हैं जिनसे वे अपने- अपने तौर पर जूझ रहे हैं। वहीं ओबीसी को लेकर हथकंडे खुले तौर पर अपनाये जा रहे हैं जिसकी एक बानगी है दिल्ली विश्वविद्यालय जहाँ पर ओबीसी के लिये एडमिशन में आरक्षण लागू होने के बावजूद इस तबके को हतोत्साहित करने का प्रयास जारी है। अभी हाल ही में विश्वविद्यालय नें एक सर्कुलर जारी किया है जिसके तहत छात्रों को एडमिशन के वक्त ओबीसी के क्रिमी-लेयर सर्टिफिकेट के साथ- साथ ही माता-पिता के आय प्रमाण पत्र को भी दिखाना होगा। अब प्रशासन में बैठे लोगों को कौन समझाये कि आय प्रमाण पत्र के आधार पर ही क्रिमी-लेयर का सर्टिफिकेट दिया जाता है। दिलचस्प है कि राष्ट्रीय राजधानी में मौजूद दिल्ली विश्वविद्यालय इस तरह का बड़ा निर्णय ओबीसी जाति के छात्रों को प्रताड़ित करने की मानसिकता से लेती है। अब इस मामले से अलग अभी हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय में कार्यरत कॉलेज शिक्षकों के शिक्षण कार्य के घंटे में इजाफा करने वाला एक सर्कुलर जारी किया गया जिसका एक बड़ा खामियाजा विश्वविद्यालय में एड-हॉक पर पढ़ाने वाले तकरीबन 5000 शिक्षकों को भुगतना था। इस सर्कुलर के बाद विश्वविद्यालय में हड़कंप की स्थिति उत्पन्न हो गई जिसके बाद लगातार प्रदर्शन का दौर जारी था। एड-हॉक व्यवस्था के तहत शिक्षकों की नियुक्ति परमानेंट पदों के एवज में चार महीने के लिये की जाती है। इस चार महीने के बाद एक दिन का सर्विस ब्रेक कर फिर उनको काम पर जारी रखा जाता है। आश्चर्य ये है कि हजारों की संख्या में शिक्षक 5- 10- 15 सालों से भी एड-हॉकिज्म के तहत काम कर रहे हैं। चूँकि इन एड-हॉक पदों पर नियुक्ति परमानेंट/स्थायी पदों के एवज में होती है तो आरक्षण प्रक्रिया का सामान्य तौर पर अनुपालन होता है उस स्थिति में इन शिक्षकों में कम- से- कम 2500 एससी- एसटी- ओबीसी समाज के तो जाहिर तौर पर होने चाहिये, जिसका आकड़ा बहुजन हित में सामने लाने की जरूरत है। अब इस पूरे सर्कुलर की आड़ में जहाँ वैश्वीकरण के बाद अमेरिकी पैटर्न पर शिक्षा के नीजीकरण व व्यावसायिक रि-मॉडलिंग करने को खतरे के तौर पर देख सकते हैं वहीं बहुजन समाज के प्रतिनिधित्व एवं भागीदारी के सवाल को भी खत्म करने के खतरे का इशारा देख सकते हैं। दिलचस्प है इन पदों पर अगर स्थायी नियुक्ति होती है तो एससी- एसटी- ओबीसी के लिये उच्च शिक्षा में बड़ी भागीदारी का रास्ता प्रशस्त होगा। सरकार की बहुजनों के खिलाफ साजिश का एक नमूना 2014 में डीयू के कुलपति दिनेश सिंह का बीए के 3 साल के कोर्स को अचानक 4 साल बना देना था जिसे काफी विरोध के बाद वापस लेना पड़ा। कपिल सिब्बल से स्मृति इरानी तक भारत की शिक्षा को अंदरूनी तौर पर कमजोर कर अमेरिकी उच्च शिक्षा के लिये प्रोडक्ट तैयार करने में लगे हैं लिहाजा सामाजिक न्याय और भागीदारी के सवालों के प्रति शिक्षा तंत्रों में बैठे सवर्ण मठाधीश बिल्कुल उदासीन व बेरूखे नजर आते हैं, यही कांग्रेस हो या बीजेपी दोनों ही सरकार की नीति है जिसको तथाकथित प्रगतिशील वामपंथी भी समर्थन करते नजर आते हैं। डीयू के कुलपति रहते समय दिनेश सिंह पर जातिवादी मानसिकता से भी काम करने के आरोप लगाये जाते रहे हैं जिसमें अपने चहेतों को विभिन्न पदों पर स्थापित करने से लेकर 2013 के आसपास कोर्ट में हलफनामा देकर एससी- एसटी- ओबीसी के बैक-लॉग पदों के मामले को पूरी तरह दफन करने एवं आरक्षित पदों पर नियुक्तियों में जानबूझ कर कोताही बरतने का मामला भी शामिल है। 

इसी बीच यह खबर आती है कि एससी- एसटी को दी जाने वाली राजीव गाँधी फेलोशिप अब सिर्फ एससी को दी जायगी और एसटी के लिये यह स्कॉलरशिप शातिर तरीके से खत्म कर दिया गया है। हर साल 667 एमफिल और पीएचडी स्कॉलर्स को यह फेलोशिप दी जाती थी। क्या आप सबको पता है कि ये जिस स्कॉलरशिप को बंद कर दिया गया है उसके लिये कितनी राशि की जरूरत थी, महज 80- 85 करोड़ रूपये सलाना। आश्चर्यजनक तौर पर सरकार की ओर से फंड की कमी का बहाना बनाया जा रहा है लेकिन इन सबका भुक्तभोगी भारत का सबसे शोषित व संघर्षशील आदिवासी तबका क्यों बने? अगर आदिवासी समाज के शिक्षा के लिये उपयोगी धन की कमी का रोना इस आजाद देश में है तो मौजूदा नरेन्द्र मोदी सरकार के लिये यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है।

लेकिन जो मसला सबसे बड़ा बवंडर बनकर आया वह यूजीसी के द्वारा देश के सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों को 3 जून, 2016 को भेजी गई चिट्ठी थी जिसमें स्पष्ट किया गया कि ओबीसी को सिर्फ असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति में 27 फिसदी आरक्षण दिया जायगा और एसोसियेट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर के पद पर ओबीसी को आरक्षण की सुविधा नही दी जायगी। हालांकि इसी पत्र में यह कहा गया कि एससी- एसटी को असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसियेट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर –तीनों पदों पर आरक्षण मान्य होगा। इस पत्र ने देश में बड़ी सुर्खिया बटोरी और ओबीसी समाज के छात्रों- शिक्षकों- बुद्धिजीवियों के बीच एक आक्रोश की स्थिति उत्पन्न की। इस मामले में भी ओबीसी समाज की तीखी प्रतिक्रिया सामने आई तो देखकर लगा कि इसी बहाने कही दलित बनाम ओबीसी की लड़ाई जो राजनीतिक क्षेत्र में मौजूद है इसे ज्ञान क्षेत्र या शिक्षा केन्द्रों में कराने की मनोवैज्ञानिक कोशिश तो नहीं है। खैर इस मामले की गंभीरता इसी बात से समझ सकते हैं कि आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर केन्द्र सरकार को इस सर्कुलर को वापस लेने की माँग कर दी और ओबीसी के लिये एसोसियेट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर पदों पर भी नियुक्ति में आरक्षण बहाल करने को कहा। उधर यूनाइटेड ओबीसी फोरम ने इस मुद्दे पर मानव संसाधन मंत्रालय पर प्रदर्शन की घोषणा कर दी। इसी बीच 7 जून, 2016 को यूजीसी ने ओबीसी छात्रों- शिक्षकों- नेताओं के दबाव में आकर एक नया सर्कुलर निकाला जिसमें 3 जून, 2016 के नोटिफिकेशन को वापस लेने की बात करते हुये ओबीसी आरक्षण के इस मसले पर पूर्व की स्थिति को ही स्वीकार करने की बात कही। लेकिन इसके साथ ही ‘इसकी टोपी उसके सर’ की तर्ज पर केन्द्र सरकार ने मामले में कांग्रेस पर ठीकरा फोड़ने का इंतजाम भी कर लिया ताकि ओबीसी आरक्षण का मामला उलझ भी जायें और बीजेपी की नाक किसी संभावित जिम्मेदारी से बच भी जाये। 24 जनवरी, 2007 को जो विश्वविद्यालयों में ओबीसी आरक्षण से संबंधित पहला नोटिफिकेशन जारी हुआ था उसमें भी सिर्फ लेक्चरर (असिस्टेंट प्रोफेसर) के स्तर पर ही 27% आरक्षण की बात थी लेकिन 3 जून, 2016 के नोटिफिकेशन में इसी 2007 के इसी पत्र संख्या का हवाला देते हुये यह बात भी अलग से जोड़ दिया गया कि ओबीसी आरक्षण सिर्फ असिस्टेंट प्रोफेसर पद के लिये होगा और एसोसियेट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर पद पर नियुक्तियों में आरक्षण लागू नहीं होगा। लेकिन ऐसा करके केन्द्र सरकार ने ओबीसी को अबतक जिन केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में तीनों स्तरों पर आरक्षण मिल रहा था वहाँ पर भी वीटो लगा दिया। पहले से ही उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी का प्रतिनिधित्व नगण्य था और इस आरक्षण व्यवस्था के कारण उसपर भी आफत आ गयी थी। इस मसले पर ओबीसी नेताओं में शरद यादव, अली अनवर, तेजस्वी यादव ने केन्द्र सरकार पर दबाव बनाने में सहयोगी भूमिका निभाई है उधर सरकार में शामिल उपेन्द्र कुशवाहा ने भी अपनी चिंता का इजहार करते हुये ओबीसी आरक्षण के पक्ष में अपनी बात रखी है।

दिलचस्प है कि इन विवादों के बीच कई ऐसे उदाहरण है जब ओबीसी के लिये एसोसियेट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर पद पर आरक्षण सहित वैकेंसी निकाली गई। केन्द्रीय विश्वविद्यालय- उड़ीसा ने 2012 में अंग्रेजी एवं पर्यावरण विज्ञान विषय में प्रोफेसर के एक-एक पद और समाजशास्त्र विषय में एसोसियेट प्रोफेसर के एक पद के लिये ओबीसी आरक्षित पद की अधिसूचना जारी की। फिर 2015 में केन्द्रीय विश्वविद्यालय- केरल ने हिन्दी विषय में ओबीसी के एक-एक पद एसोसियेट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर पद के लिये निकाला। इसी साल 2015 में ही सिक्किम विश्वविद्यालय ने विभिन्न विषयों में ओबीसी के 7 प्रोफेसर एवं 11 एसोसियेट प्रोफेसर पर की वैकेंसी निकाली। लेकिन दिलचस्प यह है कि भारत सरकार के मानव संसाधन विभाग की ओर से 9 जून, 2008 को सभी आईआईटी डॉयरेक्टर्स के नाम एक पत्र जारी किया जाता है जिसमें कई बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं: पहला, साइंस एवं टेक्नोलॉजी विषयों सहित सभी विषयों में असिस्टेंट प्रोफेसर और लेक्चरर पद पर एससी- एसटी- ओबीसी को संविधान प्रदत्त आरक्षण दिया जायगा। दूसरा, असिस्टेंट प्रोफेसर/लेक्चरर पद पर योग्य उम्मीदवार न मिलने की स्थिति में एससी- एसटी- ओबीसी के लिये आरक्षित पद गैर- आरक्षित कर दिये जाएंगे। तीसरा, साइंस एवं टेक्नोलॉजी विषयों में एसोसियेट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर पद पर कोई आरक्षण का प्रावधान नहीं होगा। लेकिन इसी पत्र में सबसे दिलचस्प एक चौथी बात है कि साइंस एवं टेक्नोलॉजी विषय से परे/ इतर मानविकी (Humanities), समाज विज्ञान (Social Science) और मैनेजमेंट (Management) जैसे विषयों में एसोसियेट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर पद पर एससी (15%)- एसटी (7.5%)- ओबीसी (27%) आरक्षण पूर्णरूपेण लागू होगा।

1991 में प्रधानमंत्री वीपीसिंह के द्वारा मंडल कमीशन लागू करने की घोषणा के बाद 1993 में केन्द्रीय समाज कल्याण मंत्री सीताराम केसरी के प्रयासों से जब मंडल कमीशन के तहत 27% ओबीसी आरक्षण नौकरियों में लागू की गई तो सभी स्तरों पर सीधी नियुक्तियों में इसे लागू किया गया। केन्द्र सरकार के पर्सनल, पब्लिक ग्रिवांसेज एवं पेंशन मंत्रालय के पर्सनल एवं ट्रेनिंग विभाग के द्वारा दिनांक- 8 सितम्बर, 1993 के पत्र संख्या- 36012/22/93-Estt.(SCT) के तहत जारी अधिसूचना के पैरा- 2(a) में स्पष्ट लिखा है कि- “27 % of the vacancies in civil posts and services under the Govt. of India, to be filled through direct recruitment, shall be reserved for the Other Backward Classes (OBC).” जाहिर है कि एसएससी से लेकर स्टेट पीएससी और यूपीएससी तक जितनी भी वैकेंसी आई तो उसमें उसी वक्त से आरक्षण लागू कर दिया गया। 1996 में केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने शिक्षण संस्थानों में एडमिशन और शिक्षण – दोनों में ओबीसी आरक्षण की प्रक्रिया शुरू की तो सवर्ण समाज के प्रतिरोध के कारण मामला कोर्ट में चला गया जिसपर सुप्रीम कोर्ट से फैसला होकर 2008 में आया। इसके तहत ओबीसी का 27 फीसदी आरक्षण एडमिशन में तमाम केन्द्रीय स्तर के शिक्षण संस्थानों में लागू करने की घोषणा हुई लेकिन इस शर्त के साथ की जनरल के लिये उतनी ही सीटों सभी संस्थानों व कोर्सों में बढ़ा दी जाएगी। लेकिन तमाम उठापटक और इसे लागू न करने की कोशिशों के बावजूद दिल्ली विश्वविद्यालय सहित तमाम केन्द्रीय संस्थानों में इस ओबीसी आरक्षण को 2011 से लागू कर दिया गया। आज जो कुछ भी ओबीसी के मुखर स्वर राजनीति से इतर बौद्धिक- वैचारिक धरातल पर सुनाई देते हैं, ये इसी 27% आरक्षण के फलस्वरूप राष्ट्रीय शिक्षण संस्थानों से पढ़कर निकल रहे आवाम की गूँज है।

यह कोई मामूली बात नहीं की विगत दिनों जेएनयू जैसे संस्थान में तथाकथित प्रगतिशील वामपंथी मुखौटे के खिलाफ ओबीसी यूनाइटेड फोरम के बैनर तले छात्रों के संगठन ने इस विश्वविद्यालय के इतिहास में लगातार संघर्ष कर अपने पक्ष में कई माँगे मानने पर प्रशासन को बाध्य कर दिया। इस संगठन के दबाव में जो माँगे मानी गई वह किसी भी केन्द्रीय विश्वविद्यालय और राष्ट्रीय स्तर के शिक्षण संस्थान के इतिहास में खास है : पहला, एकेडमिक काउंसिल ने तय किया कि ओबीसी छात्रों को आगामी सत्र से प्रवेश परीक्षा के दोनों स्तरों पर 10% रिलेक्शेसन दिया जायगा। दूसरा, आगामी सत्र से ओबीसी को हॉस्टल एलॉटमेंट में 27% आरक्षण दिया जायगा। तीसरा, आगामी सत्र से एससी- एसटी- ओबीसी आरक्षण को डॉयरेक्ट पीएचडी में लागू किया जायगा और आरक्षित सीट को जनरल नहीं किया जायगा। इसके अलावा अन्य बातों के लिये कमिटी गठन एवं विशेष अवसर की बात पर गंभीरता से विचार करने पर सहमति बनी। यह महत्वपूर्ण इसलिए भी है क्योंकि मौजूदा सत्र में तकरीबन 92 छात्रों को डॉयरेक्ट पीएचडी में लिया गया जिसमें दो छोड़कर सारे सवर्ण थे, इस बात को लेकर बहुजन छात्रों में खासा आक्रोश था। अब जब एसोसियेट प्रोफेसर और प्रोफेसर पद पर ओबीसी आरक्षण नहीं देने की बात सामने आई है तो ये सारे छात्र देशभर में वैचारिक गोलबंदी करने में लगे हैं

आरटीआई एक्ट, 2005 के तहत प्राप्त सूचना (संख्या- RTI/ UGC/4-6) से पता चलता है कि कुल मिलाकर देशभर के सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में सामाजिक न्याय, प्रतिनिधित्व एवं भागीदारी के सवाल खारिज कर साजिशन कुंद कर दिये जा रहे हैं। केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में एससी के 25 प्रोफेसर, एसटी के 11 प्रोफेसर और ओबीसी समाज के सिर्फ 4 प्रोफेसर हैं जबकि उच्च जाति के 2523 प्रोफेसर हैं। इसी प्रकार एसोसियेट प्रोफेसर (रीडर) के स्तर पर एससी के 79, एसटी के 10 और ओबीसी के 4 लोग हैं जबकि उच्च जाति के 2819 लोग एसोसियेट प्रोफेसर हैं। असिस्टेंट प्रोफेसर (लेक्चरर) के पद एससी के 422, एसटी के 211 और ओबीसी के 233 लोग हैं जबकि उच्च जाति के 1461 असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। इसी प्रकार प्रगतिशील वामपंथी कहे जाने वाला संस्थान जेएनयू भी घोर सवर्णवादी नजर आता है जब दिसम्बर, 2015 में प्राप्त आरटीआई सूचना में जेएनयू के सभी विभागों के कुल शिक्षकों का आंकड़ा मालूम पड़ता है। जेएनयू के कुल 470 शिक्षकों में 426 उच्च जाति, 28 एससी, 14 एसटी और सिर्फ 2 ओबीसी जाति के हैं जो जनरल कैटेगरी में कंपीट कर नौकरी में आये हैं। अब ओबीसी के खाली पदों का लेखा- जोखा लेने के एक कोशिश में स्थिति बहुत ही गंभीर नजर आने लगती है। उपलब्ध कराये गये एक अनुमानित आंकड़े के तहत असम विश्वविद्यालय में 32 पद, विश्वभारती विश्वविद्यालय में 50 पद, पांडिचेरी विश्वविद्यालय में 34, तेजपुर विश्वविद्यालय में 33, हरि सिंह गौर विश्वविद्यालय में 45, गुरू घासीदास विश्वविद्यालय में 44 पद ओबीसी आरक्षित होते हुये खाली हैं और इन्हें जानबूझ कर भरा नहीं जा रहा है।

सवाल ओबीसी का है, सवाल एससी- एसटी का भी है निशाने पर बारी- बारी से सब हैं लिहाजा एक बड़ा सवाल समस्त बहुजन समाज के सामाजिक- शैक्षणिक वजूद का है। बहुजन राजनीतिक नेताओं के आपसी द्वंद से इतर एक वैचारिक- बौद्धिक गोलबंदी की जरूरत है ताकि 85 फीसदी आवाम के सामाजिक न्याय, प्रतिनिधित्व व भागीदारी का सपना हकीकत में तब्दील हो सके। ज्योतिबा फूले और सावित्री बाई फूले ने बहुजनों के बीच शिक्षा की अलख जगाई जिसको क्षत्रपति शाहूजी महाराज ने विस्तार देने का काम किया जिनकी प्रेरणा से बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर ने देश- विदेश में अर्जित शिक्षा की बुनियाद पर तमाम बड़ी उपलब्धियाँ हासिल की। अम्बेडकर जी ने भले ही यह कहा कि – “राजनीति का मार्ग ही वह सबसे बड़ी कुंजी है जो समाज के सभी क्षेत्रों के द्वार खोलती है“ लेकिन उन्होंने ‘संघर्ष करने’ से पहले ’संगठित होने’ और उससे भी पहले ‘शिक्षित होने’ का संदेश दिया है। जाहिर है कि वे जानते थे कि संख्या बल की बुनियाद पर एक दिन बहुजन समाज के दलित- आदिवासी- पिछड़े अगर सत्ता केन्द्रों तक पहुँच भी गये तो शिक्षा पर आधारित वैचारिकता- बौद्धिकता के बिना ये न तो एजेंडा सेट कर पायेंगे और न ही समाज परिवर्तन का सपना पूरा कर पायेंगे। अत: संविधान निर्माता बाबा साहब ने जिस “स्वर्ग पर धावा” की परिकल्पना की थी वह संसद में पहुँचने से भी ज्यादा देश के समस्त ज्ञान व शिक्षा केन्द्रों पर बहुजनों की संख्यानुपातिक भागीदारी एवं कब्जा करने से जुड़ा है। यह उपर्युक्त बात किसी को भी अतिश्योक्ति लग सकती है लेकिन हाल के दिनों में बीजेपी- आरएसएस के द्वारा जिस तरह से देश के सभी शिक्षण संस्थानों पर कब्जा करने और ज्ञान क्षेत्र में दलित- आदिवासी- पिछड़ों के लिये प्रतिनिधित्व व भागीदारी के सवाल को जबरन खारिज करने की कवायद शुरू हुई हैं तो यह स्वाभाविक तौर पर स्वीकार्य लगती है। अब स्मृति इरानी को हटाकर जब खाँटी संघी प्रकाश जावडेकर को केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री बनाया गया है तो शिक्षा के भगवाकरण (मनुवाद- ब्राह्मणवाद और हिन्दुवाद- छद्म राष्ट्रवाद) का सवाल संघ- बीजेपी के एजेंडे में सबसे उपर नजर आता है।

भारतीय समाज की जितनी भी त्रासदी है उसका संबंध मूलत:  सामाजिक न्याय और भागीदारी के वैचारिक सवाल से ही है। वैसे अतीत काल से ही इन सवालों पर आत्म-सम्मान, न्याय, हक-हकूक को लेकर निजी और सामूहिक संघर्ष जारी है। भारत में आजादी के बाद लोकतंत्र की स्थापना के बावजूद अब तक चले आ रहे तमाम वाद- संवाद- विवाद के मूल संदर्भ सिर्फ दो ही है- एक, सामाजिक न्याय और भागीदारी के सवाल को येन- केन- प्रकारेण दरकिनार कर 15 फीसदी सवर्णवादी लोगों की यथास्थितिवाद को बनाये रखने का हरसंभव प्रयास करना  और दूसरा, दलित- आदिवासी- पिछड़ा यानि बहुजन जमात का वैचारिक जनप्रतिरोध जो 85 फीसदी आवाम के सभी क्षेत्रों में उचित न्याय व समुचित भागीदारी सुनिश्चित कराने के लिये संघर्ष करना। फिलहाल संघर्ष जारी है और यह देखने की बात होगी की देश का एससी- एसटी- ओबीसी- पसमांदा समाज स्वर्ग पर धावा बोलने एवं दावा करने के सपने कब और कैसे पूरा करता हैं। जाहिर है कि समस्त बहुजन समाज (एससी- एसटी- ओबीसी- पसमांदा) के लिये ज्ञान की तलाश उचित अवसर और शिक्षा केन्द्रों में समुचित भागीदारी की लड़ाई सबसे अहम एवं अव्वल है।

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निखिल आनंद एक वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। इनसे nikhil.anand20@gmail.com और 09939822007 पर संपर्क किया जा सकता है।

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