जसपाल सिंह सिद्धू/ खुशहाल सिंह (Jaspal Singh Siddhu/ Khushhal Singh)
आज हम ज्ञानी दित सिंह को उनकी जयंती पर नमन करते हैं। उन्होंने 19 वीं शताब्दी में ब्राह्मणवादी हमले के खिलाफ लड़ाई लड़ी जिसने सिख-धर्म को हिंदू धर्म के संप्रदाय में बदलने का प्रयास किया. अमृतसर के दरबार साहिब में हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों की स्थापना के साथ, ब्राह्मणवाद ने अपनी सभी सामाजिक और धार्मिक परंपराओं को अपनाते हुए सिखों के बीच अपने तंबू फैला लिए थे.
दित्त सिंह, अंग्रेजों द्वारा लाहौर-दरबार पर (1849 में) कब्जा करने के एक साल बाद 21 अप्रैल 1850 को जन्मे थे. पंजाब को भारत में मिला लिया गया था जो कि भारत का पहले कभी भी हिस्सा नहीं था. अंग्रेजों के शारीरिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक हमलों के चलते तहत क्रूरतापूर्वक मार तले आये सिखों की संख्या सन 1880 में घटकर मात्र 16 लाख रह गई थी. यह वही समय था जब ईसाई मिशनरियों और आर्य समाजियों ने, विशेष रूप से दलित सिखों को अपने अपने धर्म में परिवर्तित करने के लिए अपने अभियान शुरू किए. एक बड़ा खतरा आर्य समाजवादियों से आया, जिनकी परियोजना थी कि पूर्ण भारत हिन्दू पहचान बनाई जाए और इसके लिए उन्होंने गुरु नानक और सिख ग्रंथ को अपने निशाने पे लिया.
इस महत्वपूर्ण मोड़ पर, ज्ञानी दित सिंह और प्रोफेसर गुरमुख सिंह द्वारा निर्मित सिंह सभा आंदोलन ने आर्य समाजवादियों को बहस/ चर्चाओं में सरेआम पराजित करके सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से सिख धर्मग्रंथों और सिखों की अलग और विलक्षण पहचान को स्थापित किया. 51 साल की उम्र में अपनी मृत्यु से पहले, ज्ञानी दित सिंह ने खालसा अख़बार में अपने नियमित व्याख्यान और स्तंभों में अलग सिख पहचान की वकालत करने के अलावा 50 किताबें और निबंध पुस्तिकाएं भी लिखीं. उनके विशाल योगदान ने आगे की सिख पीढ़ी को दरबार साहिब से मूर्तियों को हटाने और दलित सिखों के प्रतिबंधित प्रवेश को समाप्त करने के लिए प्रेरित किया। इसके साथ ही, गुरुद्वारा सुधार आंदोलन शुरू किया जिसने आगे चलकर एसजीपीसी और अकाली दल को जन्म दिया.
ज्ञानी दित्त सिंह
एक परेशान करने वाला पहलू जो सिखों को जानना चाहिए
ज्ञानी दित्त सिंह एक दलित थे और उन्हें सिख मण्डली में ‘प्रशाद’ (सिखों की एक परंपरा जिसमें सबको ‘कड़ाह’ बाँटा जाता है) नहीं दिया गया था. इस तरह के अपमान को झेलते हुए, सबसे कद्दावर सिख विद्वान अपना व्याख्यान देने के बाद और प्रशाद बंटने के पहले सभा से बाहर निकल जाते थे. जातिगत पूर्वाग्रह जो लगभग 125 साल पहले ज्ञानी दित सिंह से को मिला था, उसके लिए आज भी संवेदनशील सिखों का सिर शर्म से लटका हुआ है.
यह दर्ज करना सुखद है कि सिखों ने 1880 से सामाजिक समानता पथ पर एक लंबी दूरी तय की है, जिसमें दलितों को सम्मानित पदों पर स्वीकार किया गया है- काबुल सिंह और अन्य एसजीपीसी अध्यक्ष, भाई निर्मल सिंह एट अल हजूरी रागी और सिंह साहिब भाई हरप्रीत सिंह को अकाल तख्त के जत्थेदार के रूप में.
एक अप्रिय टिप्पणी
भाई निर्मल सिंह के हालिया प्रकरण ने फिर से सिखों के बीच दलित मुद्दे को केंद्रीय-मंच पर ला खड़ा किया है. कुछ सिखों ने भाई निर्मल सिंह द्वारा अपनी मृत्यु से पहले दिए गए पुराने साक्षात्कार और बयानों को याद करते हुए नाराजगी जताई है कि किस तरह से उन्हें हजारी रागी के रूप में काम करते हुए जातिगत पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ा था. उन्होंने इस बात का विरोध किया कि इस समय जाति के मुद्दे उठने से ‘सिख पंथ में फूट’ पैदा होगी. हम समझते हैं शांतचित्त जाति का दमन- ये बीमारी अभी भी सिख समाज को भड़का रही है इसके नतीजे बाद में कैंसर के अनुपात में निकलने ही हैं. दलितों को चुप कराने के बजाय, सिखों को अपने बीच बचे रह गए जाति के पूर्वाग्रहों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए. अब दलित मौखिक-सहानुभूति से संतुष्ट नहीं हैं, जैसा कि महात्मा गांधी/ अन्य कांग्रेस नेताओं ने डॉ. अंबेडकर को देने की कोशिश की थी. इसी तरह, दलित समाज कम्युनिस्टों के इस वादे से भी खुश नहीं हैं कि ‘क्रांति’ आने के बाद सामाजिक रूप से एक समान समाज स्थापित किया जायेगा. अब वे एक गरिमापूर्वक सामाजिक समानता की माँग करते हैं.
इसलिए ज्ञानी दत्त सिंह की संतानों को, उनके सिख समाज को सामाजिक और राजनीतिक रूप से मजबूत बनाने के लिए, उनका बनता हक दिया जाना चाहिए.
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जसपाल सिंह सिद्धू एक वरिष्ठ पत्रकार व् जाने-माने लेखक हैं. खुशहाल सिंह, केन्द्रीय सिख सभा (चंडीगढ़) के जनरल सेक्रेटरी हैं व् लेखक हैं.
मूल आलेख- अंग्रेजी में, अनुवादक- गुरिंदर आज़ाद
नोट : यह आलेख ‘सिख सियासत’ वेबसाइट पर अंग्रेजी में छप चुका है. मूल आलेख पढने के लिए यहाँ क्लिक करें.
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