कहानी एक मुसल्ली की: अगरा सहुतरा

Faiyaz Ahmad Fyzie

  फ़ैयाज़ अहमद फैज़ी (Faiyaz Ahmad Fyzie)  पंजाब के इलाके में बसने वाले पसमांदा स्वच्छकार, जो पंजाबी समाज में सबसे निचले स्तर के माने जाते हैं मुसल्ली कहलाते हैं. मुसल्ली अरबी भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ सला (ईश्वर की उपासना का एक विशेष इस्लामी विधि जिसे नमाज़ भी कहतें है) स्थापित करने वाला होता है. चूहड़, चूड़ा, चन्गड़, […]

शौच और शौचालय की नजर से भारतीय संस्कृति के ‘शीर्षासन माडल’ का विश्लेषण

Sanjay Jothe1

  संजय जोठे (Sanjay Jothe) “…. यहाँ जिन लोगों को ब्रह्मपुरुष के मस्तिष्क ने जन्म दिया उनका मस्तिष्क कोइ काम नहीं करता, भुजाओं से जन्मे लोगों की भुजाओं में लकवा लगा है, उन्होंने हजारों साल की गुलामी भोगी है, पेट से जन्मे वणिकों ने अपना पेट भरते भरते पूरे भारत के पेट पे ही लात मार दी और गरीबी का […]

हाशिए के समाज और पहचान का संकट

faqir

जय प्रकाश फ़ाकिर (Jay Prakash Faqir) [प्रस्तुत आलेख जय प्रकाश फ़ाकिर द्वारा उपरोक्त विषय पर दिए गए व्याख्यान का हिस्सा है, जो उन्होंने DEMOcracy द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में दिया था. इस व्याख्यान का विडियो लिंक आखिर में दिया गया है] मैं #DEMOcracy का शुक्रगुज़ार हूँ जिसने मुझे इस विषय पर बोलने का मौक़ा दिया. किसी भी बात को रखने के दो […]

रद्द-ए-सर सैयद – सर सैयद का निरस्तीकरण

Faiyaz Ahmad Fyzie

  फ़ैयाज़ अहमद फैज़ी (Faiyaz Ahmad Fyzie)  जब पसमांदा आंदोलन ने सर सैयद अहमद खाँ के राष्ट्रविरोधी, इस्लाम-विरोधी, महिला शिक्षा विरोधी, पसमांदा विरोधी और जातिवादी विचारों (राउंड टेबल इंडिया, और ‘पसमांदा पहल’ पत्रिका में छपे मसूद आलम फलाही, नुरुल ऐन ज़िया मोमिन का लेख और मेरे फेस बुक के 17 से 24 अक्तूबर के पोस्ट पढ़ें) को उजागर कर उसका […]

सैयदवाद ही इबलीसवाद है?

Nurun N Zia Momin

  एड0 नुरुलऐन ज़िया मोमिन (Adv. Nurulain Zia Momin) इस लेख को लिखने की आवश्यकता इसलिए महसूस हुई क्योंकि पसमांदा आन्दोलन से सम्बन्धित व्यक्तियों, पसमांदा संगठनो के पदाधिकारियों तथा समर्थकों द्वारा इबलीसवाद, इबलीसवादी तथा इबलीसी जैसे शब्दों का प्रयोग अक्सर अपने लेखों, भाषणों, फेसबुक, व्हाट्सअप जैसी सोशल साइटों पर अपनी पोस्टों तथा बहस के दौरान अपनी टिप्पणियों में किया जाता है […]

आंबेडकरवादी राजनीतिक दर्शन के परिपेक्ष्य में फ़िल्म ‘न्यूटन’ की वैचारिक समीक्षा

khakse

ऋषिकेश देवेंद्र खाकसे (Hrishikesh Devendra Khakse) जीवन के लगभग हरेक क्षेत्र मे प्रतिगामी विचारधारा का नायकत्व विद्यमान है. टेलीव्हिजन, फिल्म तथा माध्यम जगत का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है. इस मूलतत्ववादी विचारधारा को संचालित करने वाला प्रस्थापित वर्ग, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से तय विचारधारा को टेलीव्हिजन तथा फिल्म माध्यम के फॉर्म से भूमिका, विशेषणों, प्रतीक, स्थल आदी द्वारा […]

शोषक और शोषित में एकता… क्या संभव है?

shafi

शफ़ीउल्लाह अनीस (Shafiullah Anis) आम बातचीत में अगर आप किसी को बताएं कि आप जुलाहा या रंगरेज़ हैं, या पठान या सय्यद हैं तो इस बातचीत को रोज़मर्रा की बातों में ही शुमार किया जाता है. वहीँ दूसरी तरफ जैसे ही आप खुद को पसमांदा या सामने वाले को अशराफ कह कर मुखातिब होते हैं, आप पर एक इल्ज़ाम लगा […]

भारत, हिदुस्तान और राजनीति

एड0 नुरुलऐन ज़िया मोमिन (Adv. Nurulain Zia Momin) ये सत्य है कि संघ व उससे से जुड़े संगठनो से सम्बंधित व्यक्तियों, सदस्यों व पदाधिकारियों की टिप्पणियाँ समय-समय पर मुझे बतौर मुस्लिम आहत भी करती रही है और ये सोचने पर मजबूर भी करती रही है कि क्या किसी संगठन के पदाधिकारियों से इस तरह की तर्कहीन व निराधार टिप्पणियों की आशा […]

डाॅ. अम्बेडकर का जीवन दर्शन ही मेरे जीवन का प्रेरणा स्रोत- कैलाश वानखेडे

डॉ. रत्नेश कातुलकर कैलाश वानखेड़े जी अपने प्रथम कहानी संग्रह ‘सत्यापन’ से हिंदी साहित्य जगत में अपनी विशेष पहचान के रूप में उभरे हैं. उनकी कहानियों की ज़मीन व्यापक बहुजन आन्दोलन है. कहानियों के पात्र गाढ़ी स्याही से हस्ताक्षर करते हैं. कई जगहों पर उनकी कहानियों को लेकर कार्यक्रम रखे गए. कहानियों का पाठ हुआ. उन्हीं की एक कहानी ‘जस्ट […]

बहुजन ऑटोनोमी – एक विचार

युवा साथियों के नाम जिनसे बहुजन दृष्टिकोण पर बातचीत हुई   गुरिंदर आज़ाद (Gurinder Azad) बहुजन गाड़ी पर 85% लोगों का बोझा है. बहुत जद्दोजेहद के बावजूद यह बहुत धीमे चल रही है. यह बोझा ज़िम्मेदारी में जब बदलेगा तब गाड़ी थोड़ी खुशगवार रफ़्तार पकड़ेगी. ज़िम्मेदारी का मतलब बहुजनों को ईंधन और पुर्जों में खुद को ढालना पड़ेगा. बहुजन ऑटोनोमी इसकी […]