खालिद अनीस अंसारी (Khalid Anis Ansari)
इधर कुछ दिनों से एक व्हाट्सएप ग्रुप में पसमांदा शब्द पर चल रही भीषण बहसों को देख रहा था. ग्रुप में कुछ लोगों की राय थी कि पसमांदा शब्द पर दोबारा सोचने की ज़रुरत है क्योंकि यह पिछड़ेपन को दर्शाता है और ऐसी मानसिकता के साथ विकास संभव नहीं है.
मैं अपने सीमित अनुभव के आधार पर यह कह सकता हूँ कि इस तरह का तर्क नया नहीं है और पसमांदा मध्यम वर्ग के एक तबके को काफी भाता है. यहाँ पर इस लाइन पर संक्षेप में कुछ बातें रखने का प्रयास कर रहा हूँ ताकि एक सार्थक बहस की जा सके.
बुनियादी बात यह है कि दुनिया के सारे इंसाफ के लिए संघर्षरत उपेक्षित समूहों को अपनी अलग पहचान बनानी पड़ती है. पहचान के सिलसिले में भारत में ‘अछूत’ से ‘हरिजन’ और ‘हरिजन’ से ‘दलित’ तक और अमरीका में ‘नीग्रो’ से ‘ब्लैक’ और ‘ब्लैक’ से ‘अफ्रो-अमेरिकन’ तक के सफर से हम भली-भांति परिचित हैं. भारतीय मुसलमानों में भी सामाजिक (जातीय) तौर पर उपेक्षित वर्गों ने ‘मोमिन’ से लेकर ‘पसमांदा’ केटेगरी तक सफ़र किया है. दो बातें स्पष्ट हैं: पहली, शोषितों की शोषकों से अपनी पहचान अलग करने की ज़रुरत; दूसरी, शोषितों की भी पहचान स्थायी नहीं होती; समय-काल की विशेष आवश्यकताओं के अनुसार बदली जा सकती है. पसमांदा शब्द भी बदला जा सकता है मगर कारण ठोस होने चाहिए.
अक्सर बहुजन आन्दोलन में भी ‘दलित’, ‘पिछड़े’, ‘बहुजन’ जैसे शब्दों से कुछ लोगों को दिक्कत रहती है. जब इन लोगों के वर्गीय चरित्र पर गौर करते हैं तो ज़्यादातर मध्यम-वर्ग के नौकरी-पेशा, प्रोफेशनल्स या बिज़नेसपर्सन होते हैं जिन्होंने पूंजीवादी-उपभोक्तावादी कल्चर में अपनी जगह बना ली है. उनके पास मध्यम वर्गीय सपने होते हैं, तरक्की के रास्ते हैं, फ्रिज-गाड़ी-घर-ए.सी. इत्यादि है. बच्चे अच्छे कान्वेंट स्कूलों में पढ़ते हैं, परिवार छुट्टी मनाने विदेश जाता है. उनका सवाल जायज़ है: “हम पसमांदा, दलित या पिछड़े कैसे हुए भाई?” पसमांदा शब्द उनको रास नहीं आता है.
मगर यहीं पर एक बड़ी गलती होती है. पसमांदा/दलित/बहुजन जैसे शब्द व्यक्तियों के लिए नहीं बल्कि समूहों के अधिकारों (ग्रुप राइट्स) के लिए इस्तेमाल होते हैं. हर दबे-कुचले समूह में कुछ व्यक्ति तो तरक्की कर ही लेते हैं मगर वह समूह की पहचान निर्धारित नहीं कर सकते. ऐसा करना जनतांत्रिक नहीं होगा. समूह की पहचान तो अक्सरियत के नज़रिए से ही तय होनी चाहिए. तो जब पसमांदा शब्द इस्तेमाल किया जाता है तो वह दलित/पिछड़े/आदिवासी मुसलमान समूहों के लिए इस्तेमाल होता है जिन की अधिकांश आबादी अभी भी मध्यम वर्ग नहीं बन पायी है. अब पसमांदा आबादी के मुट्ठी भर मध्यम वर्ग को तय करना है कि वह अपने पीछे छूटे हुए भाईयों और बहनों के साथ हमदर्दी दिखायेंगे और पसमांदा कहलाने में गर्व महसूस करेंगे. या फिर वह माध्यम वर्गीय महत्वकांक्षाओं के तहत दबे कुचले लोगों की पहचान से दूरी अख्तियार करेंगे.
आखिरी बात यह है कि पसमांदा शब्द पर लगभग दो दशकों से मेहनत हुई है. यह शब्द चल निकला है. सैकड़ों रिसर्च, लेखों, पर्चों, पोस्टर्स, धरना/प्रदर्शन/रैली में इस शब्द का इस्तेमाल हुआ है. इस नाम से ‘पसमांदा आवाज़’ नाम की पत्रिका निकलती थी और ‘पसमांदा पहल’ नाम की पत्रिका आज भी नियमित तौर पर निकलती हैं. अब यह शब्द ‘adjective’ से ‘proper noun’ बन चुका है. पसमांदा एक क्रांतिकारी शब्द है जिस से सवर्ण/अशराफ तबके की नींद उड़ जाती है. जिस शब्द पर इतना खून-पसीना लगा हो उस को क्यों बदला जाये? क्या पसमांदा शब्द को सिर्फ इस लिए बदला जाये कि अशराफ तबका कुछ मध्यम-वर्गीय पसमांदा का इस शब्द का इस्तेमाल कर के उपहास उड़ाता है? या उन्हें अपने आप को पसमांदा कहलाना इस लिए पसंद नहीं है कि वह तरक्की कर चुके हैं और हीन भावना का शिकार हो जाते हैं?
पंजाब की गलियों में आज ‘पुत्तर चमारा दा’ जैसे गाने और अमरीका में ‘ब्लैक इस ब्यूटीफुल’ जैसे नारे दिखाते हैं, कि कैसे पहचानों का शासक वर्गों के खिलाफ़ इस्तेमाल होता है. जब कोई पसमांदा व्यक्ति अपने नाम के आगे ‘हलालखोर’ या ‘कुंजड़ा’ लगाता है तो यह शर्म की बात नहीं बल्कि सवर्ण/अशराफ जैसे शोषक तबकों के खिलाफ जंग का ऐलान होता है. अगर कुछ मध्यम-वर्गीय पसमांदा लोगों को सय्यद साहब अपने दस्तरखान पर बुला लेते हैं या तिवारी जी किसी दलित परिवार में भोज कर आते हैं तो इसका मतलब यह नहीं हुआ कि अशराफ़/सवर्ण वर्ग अब शोषक नहीं रहा. आन्दोलन में इस्तेमाल हुए शब्द और केटेगरी राजनीतिक होते हैं. किसी भी केटेगरी का मूल्यांकन समूह के अधिकारों या ग्रुप राइट्स के आधार पर होना चाहिए न कुछ लोगों की व्यक्तिगत वर्गीय परिस्तिथियों या निजी पसंद-नापसंद पर.
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खालिद अनीस अंसारी ग्लोकल यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के अध्यापक हैं. यह उनके निजी विचार हैं.
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स्मितावादी दर्शन और उसके पैरोकार का मुख्य एजेंडा मानव द्रोही और मुनाफे की हवश पर टिका पूंजीवादी और उसकी सेवा मे मेहरवान बुरजूआ जनवाद को सुरक्षित रखना है। यह किसी रैडीकल बदलाव का सख्त विरोधी है। आम मेहनतकश मजदूर तबका जिसका बङा हिस्सा दलित, आदिवासी, मुसलिम और पिछङी जाति से ताल्लुक रखने वाले समुदाय से आते हैं। लेकिन पहचान की राजनीति जो निहायत ही खाते पीते मध्यमवर्गीय बुरजूआ नेताओं द्वारा संचालित होता है, ने अपने निहित स्वार्थ को साधने के लिए आम मेहनतकश मजदूर वर्ग को खंडित कर पूंजीवाद को ही सेवा करते हैं। हिन्दू फासीवाद जो अपने नग्न हिंसक रूप मे आज सबके सामने एक चुनौती बनकर उभरा है, उसका सामना स्मितावादी दर्शन और राजनीति से करना असंभव है। हर स्मिता दूसरे स्मिता को जन्म देता है और परिणामतः स्मितावाओ का आपसी संघर्ष बढ़ाता रहता है। पटेल, मराठा, जाट, गुजजर जातियों का आंदोलन इस बात को रेखांकित करते हैं कि समुदाय स्मितावाये जातिवाद स्मिता के रूप मे परिवर्तित हो जाती है। माला मादिगा का झगड़ा दलित स्मिता को झूठालाता है। बहुजन स्मिता एक मिराज के सिवा कुछ नही है। हिन्दुस्तान के किसी गाँव मे जाये तो आसानी से पता चल जायेगा कि दलितों पर जातीय हिंसा स्वर्णो से ज्यादा ओबीसी के दबंग लोगों द्वारा की जाती है। और अधिकतर जातिय हिंसा का मूल कारण किसी न किसी रूप मे भौतिक (जमीन, मजदूर,) संबंध होता है। आरएसएस और भाजपा जो ग्रैंड स्मितावादी (हिंदू, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद) राजनीति से सभी छोटी स्मितावादी नेताओं को धराशायी किया है इससे एक बात साबित होता है कि संघी फासीवाद का मुकाबला घीसीपीटी स्मितावादी विचारधारा और राजनीति से कतई संभव नही है। इतिहास से कुछ सबक ले तो स्पष्ट होता है कि हिटलर और मुसोलिनी का खातमा मार्क्सवाद के रास्ते जाता है न कि स्मितावादी राजनीति के रास्ते ।
“Bahujan Muslim”/”Bahujan Musalmaan” Ya “moolnivasi Muslim”/”moolnivasi musalmaan” kyon nahi kah sakte apne aap ko?
संजय कुमार चौधरी की उपर लिखी हुई कमेंट से काफी हद तक सहमत।